इस क़दर आइना से वो डरने लगे
छुप छुप करके अब तो संवरने लगे
चांद निकला सफ़र पे लिये रोशनी
दाग़ उसका दिखाकर वो हंसने लगे
तोड़ना जोड़ना जिनकी फितरत रही
टूट कर अब तो ख़ुद ही बिखरने लगे
कैसा अंधों का ये तो शहर हो गया
खोटे सिक्के धड़ल्ले से चलने लगे
खूब कोशिश से वे तो सुधर ना सके
वक्त बदला तो "सागर"सुधरने लगे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें