शनिवार, 28 जून 2025

भारतीय आध्यात्मिक परम्परा में जाति- श्री माधव कृष्ण गाज़ीपुर उत्तरप्रदेश

भारतीय आध्यात्मिक परम्परा में जाति

मेरे इष्ट भगवान श्रीकृष्ण हैं। मेरे गुरु परमहंस बाबा गंगारामदास जी हैं। मेरे दीक्षा गुरु भोला बाबा हैं। मेरे जीवन की शक्ति का स्रोत श्रीमद्भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषद हैं। मेरे गुरु के गुरु परमहंस राममंगल दास हैं। परमहंस राममंगल दास के सर्वाधिक प्रिय शिष्य और उनकी परम्परा को आगे ले जाने वाले परमहंस बाबा गंगारामदास हैं। बचपन से आज तक मैंने जातियों में विश्वास नहीं किया भले कुछ भी झेलना पड़े। लेकिन आज के वातावरण में मैं एक पाप करने जा रहा हूं ताकि जातियों पर विवाद करने वाले लोगों की बुद्धि शुद्ध हो।

वह पाप है अपनी गुरु परम्परा के पूर्वजों में से कुछ की जातियां उद्घाटित करने का। मेरे आदि गुरु संत रामानंद जन्म से ब्राह्मण थे। उन्होंने नारा दिया, जात पात पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई। उनके १२ महाभागवत शिष्य थे जिनमें संत कबीर दास जैसे अज्ञात जाति के महापुरुष और संत रविदास जैसे हरिजन जाति के महापुरुष थे। हमारे दादागुरु परमहंस राममंगल दास जी जन्मना ब्राह्मण थे। उनके सबसे प्रिय शिष्य परमहंस बाबा गंगारामदास जी जन्मना यादव थे। मुझे दीक्षा देने वाले भोला बाबा जन्मना यादव हैं और १४ वर्ष की अवस्था से आज ७० वर्ष की अवस्था तक नैष्ठिक संन्यासी हैं।

मुझे गर्व है अपनी भारतीय अध्यात्म परम्परा पर। मुझे गर्व है भोला बाबा पर जिनके जैसा सरल ब्रह्मनिष्ठ संत दुर्लभ है, जिनकी कृपा से मैंने सेवा और साधना की शक्ति का व्यक्तिगत अनुभव किया। मेरे गुरुदेव परमहंस बाबा गंगारामदास जी जैसा अवतारी पुरुष, न भूतो न भविष्यति। उनके जीवन को देखकर ही अध्यात्म के सभी विषयों का ज्ञान हो जाता है। उनके हजारों शिष्यों में अनेक जातियों के लोग हैं, ब्राह्मण भी हैं, मल्लाह भी हैं, और गंगा बाबा ने सभी से एकसमान प्रेम किया। हम सभी गुरु भाइयों में एक दूसरे से जाति पूछना तो दूर, इसे देखने का भीं साहस नहीं है। हम सभी एक साथ खाते हैं, बैठते है और एक दूसरे से अधिक नजदीकी हमारा कोई नहीं है।

गुरुदेव गंगा बाबा ने ११ वर्ष की अवस्था में मेरा हाथ पकड़कर मुझे मानव धर्म का कार्य करने के लिए कहा था। और सालों बाद जब मैं २०१४ जुलाई में कॉरपोरेट करियर छोड़कर भारत वापस आया, उस समय तक मुझे नहीं पता था कि मुझे किसने बुलाया है? आज मेरा रोम रोम अपने गुरु बाबा गंगारामदास की वाणी से उपकृत है। उनके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। मैं कैसे मानव धर्म से और श्री गंगा आश्रम से जुड़ा, मुझे भी नहीं पता, लेकिन वृथा न होय देव ऋषि वाणी। बाबा गंगारामदास को कुछ लोगों ने गालियां दीं, उसी गांव से, लेकिन जब उनके शिष्यों ने प्रतिरोध करना चाहा तो बाबा ने कहा, सहो सहो सहो, मै गाली देने वालों में भी भगवान कृष्ण का साक्षात दर्शन करता हूं।

भारतभूमि ने कभी भी संतों की जाति नहीं पूछी है, उल्टे उन्हें सिर माथे पर बैठाया है। इसलिए सावधान रहने की आवश्यकता है। जिनका एजेंडा जातियों की राजनीति करके लोगों में फूट डालना है और येन केन प्रकारेण सत्ता तक पहुंचना है, वे अब शुद्ध अध्यात्म के क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश कर रहे हैं। समाज में अवैध संविधानविरुद्ध कृत्यों की पुरजोर आवाज में भर्त्सना करने की आवश्यकता है, चाहे वह आपके राजनैतिक एजेंडे को सूट करे या नहीं। हमारे गुरुदेव कहते थे कि, घर घर में आग लगी है, ईश्वर कृपा चाहिए तो इस आग को बुझाने के लिए एक बाल्टी पानी उठा लो। अन्यथा यह आग कर्म के सिद्धांत और न्यूटन के तीसरे नियम के अनुसार तो सबके घर पहुंचने वाली ही है, और उनके घर तो अवश्य जो इसके लिए उत्तरदायी हैं।

हम उस वाल्मीकि की रामायण को अपना आर्ष ग्रन्थ मानते हैं जो पूर्व आश्रम में डकैत थे, हम उस वेदव्यास के ग्रंथों का स्वाध्याय करते हैं जो मल्लाह थे, हम उस तुकाराम के अभंग गाते हैं जो बनिया थे, हम उस नन्हकू बाबा के भक्त हैं जो मल्लाह थे और गंगा बाबा के समकालीन थे और उसी गांव के थे, हम उस अंगुलिमाल को संत के रूप में स्वीकार कर गए जो हत्यारे थे लेकिन बुद्ध की कृपा छाया में आकर संतत्व को प्राप्त हो गए। बांटने वाली शक्तियों को समाप्त करने की आवश्यकता है, उनके झांसे में नहीं आना है। जातियों के पक्ष या विपक्ष में वक्तव्य देने से अच्छा है कि चुप रहें, और बोलना भी है तो मनुष्यता के पक्ष में बोलें।

इस समाज को न बोलना सीखने की जरूरत है, और बोलने की कला भी सीखने की जरूरत है। बोलना ही क्यों है यदि कुछ बोलने के लिए नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में बोलने के लिए चार अर्हताएं बतायीं जिनसे वाणी की तपस्या सिद्ध होती है: १. अनुद्वेगकर वाक्य: ऐसा कुछ मत कहिए जिससे किसी को उद्वेग हो। २. सत्य: मेरे गुरुदेव का महावाक्य है कि झूठ बोलने वाला कभी आगे नहीं बढ़ता है। ३. प्रिय: यदि पहली दो कसौटियां पूरी होती हैं लेकिन वह अप्रिय है, तो भी शांत रह जाइए, मत बोलिए। ४. हित: आप जो कह रहे हैं वह हितकारी है या नहीं। हमें अपनी साधना, सेवा, ज्ञान पर गर्व करना चाहिए, उस पर जो हमने खुद करके अर्जित किया है। उस थोथी जाति पर कैसा गर्व जिस में हम भाग्यवश पैदा हुए और जिसमें हमारा कोई हाथ नहीं!

२०१९ में मुझे एक राजनैतिक पार्टी ज्वाइन करने का ऑफर मिला था लेकिन तब तक गुरुदेव की कृपा से मुझे यह समझ में आ चुका था कि समाज में सकारात्मक संरचनात्मक परिवर्तन करने की शक्ति वर्तमान राजनीति में नहीं है जिसका एकमात्र उद्देश्य है किसी तरह सत्ता तक पहुंचना। इस विश्व को आवश्यकता है परमहंस बाबा गंगारामदास जी जैसे युगपुरुष की, परमहंस राममंगल दास जैसे महापुरुष की। मुझे गर्व है अपनी आध्यात्मिक परम्परा पर, भारत के महान ऋषियों और आचार्यों पर, भारत के महान अवतारों पर, उन शास्त्रों पर जिन्होंने जीवन को सरल बनाया, विशेषकर प्रस्थानत्रय, अपने गुरु आश्रम पर और अपने गुरुदेव पर। और आपको?

माधव कृष्ण, २६ जून २०२५, गाजीपुर


मंगलवार, 24 जून 2025

जियता में नाहीं नाहीं मुअला में अइल, बेटा ई का कइल- रचना विद्या सागर

जियता में नाहीं, नाहीं मुअला में अइल,
बेटा ई का कइल,

रीतियो रिवाज भूलि गइल
जबले जियल माई सबही से कहलस
बचवा हमार आई रहिया निहरलस
आवेके कहिके तूंहूं काहे नाहीं अइल
बेटा ई का कइल, रितियो...............

रुक गइली सांस, आश जिनगी के टूटल
तोहके निहारे खातिर आंख रहे खूलल
प्रीतिया के रीति त्यागी कहाँ अंझुरइल
बेटा ई का कइल रीतियो................

जीवन के साथी जब छोड़ि दिहली साथ हो
कइसे बिताइब दिनवा नइखे सुझात हो
"सागर" होइब हमार कइसे, माई के ना भइल
बेटा ई का कइल रीतियो रिवाज भुलि गइल



गुरुवार, 19 जून 2025

यूनाइटेड यूनिवर्सिटी और हिंदुस्तान समाचार पत्र द्वारा आयोजित प्रतिभा सम्मान समारोह- श्री माधव कृष्ण

यूनाइटेड यूनिवर्सिटी और हिंदुस्तान समाचार पत्र द्वारा आयोजित प्रतिभा सम्मान समारोह में गाजीपुर की प्रतिभाओं के साथ मेरे संवाद के प्रमुख अंश:

१. मनुष्य को ज्ञान से ही मनुष्यता मिलती है।
२. इस ज्ञान का चरमोत्कर्ष संवेदना है, अन्यथा स्वार्थपरक ज्ञान हमें केवल रोबोट बनाता है।
३. लगातार लंबे समय तक एक ही दिशा में प्रयास करना है, जब तक हमें अपना लक्ष्य न मिले।
४. लक्ष्य हमारा अपना होना चाहिए। दूसरे के थोपे हुए लक्ष्य हमें विचलित करते हैं, और असफल बनाते हैं।
५. इसलिए अध्यात्म की भाषा में आत्मबोध होना चाहिए। हम कौन हैं, हम क्या करना चाहते हैं, हमें कहां जाना है, हमारी कमजोरियां क्या है, हमारी शक्ति क्या है इत्यादि।
६. प्रतिभा पलायन जैसी स्टीरियोटाइपिंग से लड़कर सर्वोत्तम शिक्षा और अवसर के लिए सर्वोत्तम स्थान और संस्थानों में जाना चाहिए।
७. अपने सोचने के क्षितिज का विस्तार करना प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है।
८. अंकों से कुछ नहीं होता, मैं इस वाक्य में विश्वास नहीं करता। यदि ज्ञान अर्जन के लिए परिश्रम किया है तो अंक भी आयेंगे। अच्छे अंक अच्छे विद्यार्थी का लक्षण है।
९. अच्छे पढ़े लिखे लोगों और विद्वानों से संसार को समस्या रही है क्योंकि केवल इन्हीं लोगों ने सत्य को मजबूती के साथ और संदर्भ के साथ रखा है।
१०. इसलिए उस विषय को चुनिए जो आप को आपके सत्य के निकटतम ले जाता है। प्रत्येक विषय में अपार संभावनाएं हैं और अनंत गहराई है।

मुख्य अतिथि: श्री संतोष कुमार वैश्य, मुख्य विकास अधिकारी, गाजीपुर
विशिष्ट अतिथि: श्री हेमंत राव, बेसिक शिक्षा अधिकारी; श्री सेंगर, कोतवाल, गाजीपुर
आयोजक: यूनाइटेड विश्वविद्यालय, हिंदुस्तान अखबार (श्री अभिषेक सिंह, श्री प्रवीण राय)
स्थान: कान्हा हवेली, गाजीपुर
दिनांक: १९ जून २०२५, गाजीपुर




मंगलवार, 17 जून 2025

जलवायु परिवर्तन एवं नदी संरक्षण जन चेतना अभियान- लेखक प्रकृति प्रेमी लव तिवारी ग़ाज़ीपुर उत्तरप्रदेश

जलवायु परिवर्तन एवं नदी संरक्षण जन चेतना अभियान का आयोजन दिनांक 26 जून 2025 दिन बृहस्पतिवार को प्रातः 10:00 बजे से आलम पट्टी बलिया रोड गाजीपुर स्थित द ईडेन पैलेस में हो रहा है जिसके मुख्य अतिथि जल पुरुष भाई राजेंद्र सिंह जी है। इस उत्कृष्ठ सामाजिक कार्यक्रम का निमंत्रण पत्र गाजीपुर के जाने-माने महान समाजसेवी श्री श्रीवास्तव जी एवं उनके सहयोगी द्वारा हमें प्रदान किया गया।

आज के वैज्ञानिक युग में जलवायु परिवर्तन और नदी संरक्षण दो अत्यंत महत्वपूर्ण विषय हैं। जलवायु परिवर्तन जहां धरती के वातावरण में दीर्घकालिक बदलाव, जैसे कि औसत तापमान में वृद्धि, वर्षा के पैटर्न में बदलाव, समुद्री स्तर का बढ़ना आदि। इसका मुख्य कारण है मानवीय गतिविधियाँ —जैसे कि जंगलों की कटाई, जीवाश्म ईंधन का अत्यधिक प्रयोग, औद्योगिक प्रदूषण, और कार्बन उत्सर्जन।इस जलवायु परिवर्तन का सीधा असर हमारी नदियों पर भी पड़ता है। नदियाँ सूख रही हैं, उनका जलस्तर घट रहा है, और उनमें प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। वर्षा की अनिश्चितता और ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों का प्राकृतिक प्रवाह प्रभावित हो रहा है। इससे न केवल पेयजल की समस्या उत्पन्न हो रही है, बल्कि कृषि, उद्योग और जैव विविधता पर भी संकट मंडरा रहा है।नदी संरक्षण इसलिए आवश्यक है क्योंकि नदियाँ जीवनदायिनी हैं। इनके बिना न मानव जीवन संभव है, न ही पारिस्थितिकी संतुलन। नदी संरक्षण के लिए हमें निम्नलिखित उपाय करने चाहिए:

१-नदियों में कचरा, प्लास्टिक और रसायनिक अपशिष्ट डालने पर रोक लगानी चाहिए।

२-जल स्रोतों के पास वृक्षारोपण को बढ़ावा देना चाहिए यह वृक्षारोपण जनपद किसी एक दो समाजसेवी से नहीं बल्कि हर व्यक्ति के करने से पर्यावरण एवं नदी संरक्षण जैसे महान कार्य को प्रमुख दिशा मिल सकती है।

३-औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले प्रदूषकों को पहले शोधित करना चाहिए।

४-जलग्रहण क्षेत्रों का विकास करना चाहिए जिससे वर्षा जल का संचयन हो सके।

५-लोगों में जागरूकता फैलानी चाहिए कि स्वच्छ नदियाँ ही हमारे भविष्य की गारंटी हैं।

६-जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करना चाहते हैं, तो हमें नदियों का संरक्षण करना ही होगा। यह कार्य अकेले सरकार का नहीं, बल्कि हम सभी नागरिकों की जिम्मेदारी है।

#जलवायु #परिवर्तन #नदी #संरक्षण #जनचेतना #अभियान #नदी #जीवनदायिनी #गाज़ीपुर #उत्तरप्रदेश २३३००१




शनिवार, 14 जून 2025

शिक्षा के साथ मेरे प्रयोग: अपराजिता सिंह - लेखक श्री माधव कृष्ण

शिक्षा के साथ मेरे प्रयोग: अपराजिता सिंह

हमें अपने आस पास उन युवाओं को देखने और उनकी सफलताओं को प्रोजेक्ट करने की आवश्यकता है, जो नई पीढ़ी के लिए रोल मॉडल बन सकें। आज मैं फिर से एक ऐसी नवयुवती के विषय में लिखने जा रहा हूं, और वह हैं अपराजिता सिंह। गाजीपुर ने एक लंबे समय तक बड़े मकानों, गैंगस्टरों, दबंग नेताओं इत्यादि को अपना नायक बनाया है। उसमें माधव यादव और अपराजिता सिंह जैसे लोगों का सामने आना किसी ताजी हवा के मलयज स्पर्श से कम नहीं। अपराजिता के जीवन में चुनौतियां भी अनगिनत रही हैं। एक बार वह इतनी रुग्ण हो गईं शारीरिक और मानसिक रूप से, कि हम सभी चिंतित हो गए। लेकिन उनके पिता जी प्रिंस भैया मानसिक रूप से अत्यधिक दृढ़ व्यक्ति हैं और उन्होंने संघर्ष करके अपराजिता को पुनः स्वस्थ कर दिया।

अपराजिता मेरे अग्रज प्रिंस सिंह भैया की पुत्री हैं। वह लूर्ड्स कॉन्वेंट की छात्रा रह चुकी हैं। प्रिंस भैया चाहते थे कि अपराजिता को मैं गाइड करूं। अपराजिता आती थीं, और सबके साथ बैठकर ट्यूशन पढ़ती थीं। मेरा काम था केवल उनके संदेहों और प्रश्नों पर अपनी राय रखना, और शेष सारा काम वह स्वयं कर लेती थीं। एक शिक्षक का काम भी यही है, बच्चों को उस स्तर तक ले जाना जहां वे अपने प्रश्नों के उत्तर स्वयं ढूंढ़ सकें। अपराजिता की इच्छा शक्ति के कारण मुझे बहुत श्रम नहीं करना पड़ा। मेरे ऊपर केवल एक बोझ था, और वह था प्रिंस भैया का मुझ पर अतिशय विश्वास। और यह आज तक बना हुआ है इसलिए उनके साथ बच्चों के विषय में बातचीत करते समय मैं अत्यधिक असहज रहता हूं।

अपराजिता पढ़ती थीं, अपना सारा काम समय से पूरा करती रहीं और समय व्यतीत हो गया। अपराजिता बिना किसी सहायता के साथ कम उम्र में ऐसी पेंटिंग बनाती थीं कि पूरा भाव और चेहरा उतर जाय। एक दिन अचानक खबर मिलती है कि अपराजिता ने सबसे कम समय में पीरियॉडिक टेबल के सभी एलिमेंट्स को एक साथ बोलने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है। एक दिन फिर खबर मिलती है कि अपराजिता को भारत के प्रीमियर फैशन इंस्टीट्यूट एन आई एफ टी भुवनेश्वर में प्रवेश मिल गया है। मैं और प्रिंस भैया हमेशा की तरह बच्चों के करियर और इस अवसर के विषय में बातचीत किए। यह हम सबके लिए गर्व की बात थी।

एक दिन पुनः समाचार मिलता है कि अपराजिता ने सबसे अधिक समय तक एक ही योग मुद्रा में रहने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है। अब केवल उनकी उपलब्धियों के समाचार मिलते रहे। हम सब हर्षित होते रहे लेकिन एक दिन सूचना मिली कि वह अत्यधिक अस्वस्थ है और उसे अपने इंस्टीट्यूट से एक वर्ष के लिए घर आना पड़ा ताकि स्वास्थ्य लाभ ले सके। यह किसी भी मेधावी और समर्पित छात्रा के लिए एक सेटबैक होगा, लेकिन गाजीपुर आने के बाद अपराजिता अवसाद में जाने के बजाय रिसर्च में लग गई। उसने एक के बाद एक करीब १५ से ऊपर शोध पत्र लिख डाले और उसे केनेडी यूनिवर्सिटी से मानद डॉक्टरेट की उपाधि मिल गई। उसे गोवा के राज्यपाल से राजभवन में सम्मान मिला। एक शोध पत्र के लिए उसे भारत के रक्षा मंत्रालय से आमंत्रण आया और इस समय वह भारत सरकार की तरफ से रूस के अंतरिक्ष केंद्र में जाने वाले डेलिगेशन की सदस्य के रूप में मास्को में है।

कम उम्र, चुनौतियां, रोग, समस्याएं: ये सब किसके पास नहीं हैं? लेकिन अपराजिता उन सभी छात्रों छात्राओं के लिए एक रोल मॉडल है जो एक छोटी से असफलता पर अवसाद में चले जाते हैं, जो भविष्य को लेकर अत्यधिक आशंकित रहते हैं, जो शराब और ड्रग्स को जीवन बना लेते हैं, जो बॉयफ्रेंड और गर्लफ्रेंड को जीवन का अहम हिस्सा बना लेते हैं, जो इस तरह से इंस्टीट्यूट में एक साल खराब होने पर सब कुछ खत्म हुआ समझ लेते हैं, जो आरक्षण बेरोजगारी और न जाने किन किन बातों को दोष देते रहते है । उन्हें सीखना चाहिए कि जीवन अनंत संभावनाओं का द्वार है। यदि आप कुछ करना चाहते हैं तो आपके पास बहुत कुछ सकारात्मक करने को है, लेकिन यदि आप केवल दूसरों को दोष देना और चिंता करने में जीवन को बर्बाद करना चाहते हैं तो चयन आपका है। अपराजिता मुझसे नियमित मिलती हैं और उनकी बातचीत का बस एक केंद्र होता है: अब आगे और क्या?

फिलहाल, मेरी आज की हीरोइन या नायिका या रोल मॉडल: अपराजिता सिंह। उनसे अपने बच्चों का परिचय अवश्य करवाएं।

माधव कृष्ण, १४ जून २०२५, गाजीपुर




विमान में सैनिको का भोजन

विमान में भोजन
मैं अपनी सीट पर बैठा था, दिल्ली के लिए उड़ान भरते हुए — लगभग 3 घंटे की यात्रा थी। मैंने सोचा, एक अच्छी किताब पढ़ूंगा और एक घंटा सो लूंगा
टेकऑफ़ से ठीक पहले, लगभग 10 सैनिक आए और मेरे आसपास की सीटों पर बैठ गए। यह देखकर मुझे रोचक लगा, तो मैंने बगल में बैठे एक सैनिक से पूछा, “आप कहां जा रहे हैं?
“आगरा, सर! वहां दो हफ्ते की ट्रेनिंग है, फिर हमें एक ऑपरेशन पर भेजा जाएगा,” उसने जवाब दिया
एक घंटा बीत गया। एक घोषणा हुई — “जो यात्री चाहें, उनके लिए लंच उपलब्ध है, खरीद के आधार पर
मैंने सोचा — अभी लंबा सफर बाकी है, शायद मुझे भी खाना लेना चाहिए। जैसे ही मैंने वॉलेट निकाला, मैंने सैनिकों की बातचीत सुनी
“चलो, हम भी लंच ले लें?” एक ने कहा
“नहीं यार, यहां बहुत महंगा है। जमीन पर उतरकर किसी ढाबे में खा लेंगे,” दूसरे ने कहा
“ठीक है,” पहला बोला
मैं चुपचाप एयर होस्टेस के पास गया और कहा, “इन सभी को लंच दे दीजिए।” और मैंने सबका भुगतान कर दिया
उसकी आंखों में आंसू थे। बोली, “मेरे छोटे भाई की पोस्टिंग कारगिल में है, सर। ऐसा लगा जैसे आप उसे खाना खिला रहे हों धन्यवाद।” उसने सिर झुकाकर नमस्कार किया
वो पल मेरे दिल को छू गया
आधे घंटे में सभी सैनिकों को उनके लंच बॉक्स मिल गए
खाना खत्म करने के बाद, मैं फ्लाइट के पीछे वॉशरूम की ओर गया। पीछे की सीट से एक वृद्ध व्यक्ति आए
“मैंने सब देखा। आप सराहना के पात्र हैं,” उन्होंने हाथ बढ़ाते हुए कहा
“मैं भी इस पुण्य में भाग लेना चाहता हूँ,” उन्होंने चुपचाप ₹500 मेरे हाथ में रख दिए
मैं वापस अपनी सीट पर आ गया
आधे घंटे बाद, विमान का पायलट मेरी सीट तक आया, सीट नंबर देखता हुआ
“मैं आपका हाथ मिलाना चाहता हूँ,” वह मुस्कुराया
मैं खड़ा हुआ। उसने हाथ मिलाते हुए कहा, “मैं कभी फाइटर पायलट था। तब किसी ने यूं ही मेरे लिए भोजन खरीदा था। वो प्यार का प्रतीक था, जो मैं कभी नहीं भूला आपने वही याद ताज़ा कर दी
सभी यात्रियों ने ताली बजाई। मुझे थोड़ी झिझक हुई। मैंने ये सब प्रशंसा के लिए नहीं किया था — बस एक अच्छा कार्य किया
मैं थोड़ा आगे बढ़ा। एक 18 साल का युवक आया, हाथ मिलाया और एक नोट मेरी हथेली में रख दिया
यात्रा समाप्त हो गई
जैसे ही मैं विमान से उतरने के लिए दरवाजे पर पहुंचा, एक व्यक्ति चुपचाप कुछ मेरी जेब में रखकर चला गया — फिर एक नोट
विमान से बाहर निकलते ही देखा, सभी सैनिक एकत्र थे। मैं भागा, और सभी यात्रियों द्वारा दिए गए नोट्स उन्हें सौंप दिए
“इसे आप खाने या किसी भी ज़रूरत में उपयोग करिए जब तक ट्रेनिंग साइट पर पहुंचें। जो हम देते हैं, वो कुछ भी नहीं है उस बलिदान के आगे जो आप हमारे लिए करते हैं। भगवान आपको और आपके परिवारों को आशीर्वाद दे,” मैंने नम आंखों से कहा
अब वे दस सैनिक केवल रोटी नहीं, एक पूरे विमान का प्यार साथ लेकर जा रहे थे
मैं अपनी कार में बैठा और चुपचाप प्रार्थना की
“हे प्रभु, इन वीर जवानों की रक्षा करना, जो इस देश के लिए जान देने को तैयार रहते हैं
एक सैनिक एक खाली चेक की तरह होता है — जो भारत के नाम पर किसी भी राशि के लिए भुनाया जा सकता है — यहां तक कि जीवन तक
दुर्भाग्य है कि आज भी बहुत लोग इनकी महानता नहीं समझते
चाहें इसे साझा करें या कॉपी करें — यह आपका निर्णय है
पर जब भी इसे पढ़ें, आंखें नम हो जाती हैं।
पढ़िए। आगे बढ़ाइए।
भारत माता के बेटों का सम्मान — स्वयं का सम्मान है



– जय हिंद👍😊🎺🙏

गुरुवार, 12 जून 2025

ससुरा में दारू पीके घूमेला सजनवा रे भउजी हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी

ससुरा में दारू पीके घूमेला सजनवा रे भउजी

हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी


सुनिला कि संइया मोरा बने रंगबजवा

दिन भर मस्त रहे पीके दारू गंजवा

बेरिया कुबेर आके मांगे घरे खनवां रे भउजी

हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी


सुनिला जेठानी से लड़ावेला नजरिया 

ओकरा के लेके घूमें हाट औ बजरिया 

चोरी चोरी किने साड़ी, साया गहनवा रे भउजी 

हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी 


कुछु नाही कहब भले आधा पेट खाइब

लुगरी पहिर हम जिनगी बिताइब

चौका,चुल्ह करब हम धोइब बरतनवा रे भउजी 

हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी 


जबरी जो भेजबू तबो नाहीं जाइब 

कुलवा में तोहरी हम दगिया लगाइब

सागर सनेही मान हमरो कहनवा रे भउजी 

हम त जाइब ना गवनवा रे भउजी


रचना विद्या सागर स्नेही जी







आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता रचना श्री सुनील यादव युवा किसान मोहम्मदाबाद ग़ाज़ीपुर

आजकल के नेता लोग के देखी राजनीति हो

तिरंगा सोच ता आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता


पार्टी जातिवाद वाला नारा लगवेल।

आवे जब वोट सबके पहड़ा पढ़ावेल।।

हो.....पहड़ा पढ़ावेल।।

बनल एकता में डाले नेता फुटनीति हो तिरंगा सोच त

आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता

हो तिरंगा सोच ता


ओटवा से पहले सब शरीफे बुझाला।

पा जाले कुर्सी तब करेलन घोटाला।।

हो...करेलन घोटाला।।

आजकल के नेता लोग के यहे राजनीति हो तिरंगा सोच ता

आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता

हो तिरंगा सोच ता


पार्टी ए क झंडा सब कर गाड़ी पर देखात बा।

धीरे धीरे सबही तिरंगा के भुलात बा

हो.....तिरंगा के भुलात बा

आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता

हो तिरंगा सोच ता


लिखे ओमप्रकाश देखी के आवत रोवाई

लागता हमार कहियो देशवा लुटाई

अरे......देशवा लुटाई

दिन पर दिन बिगड़े देशवा के स्थिति हो

हो तिरंगा सोच ता

आगे कइसे दिनवा बीती हो तिरंगा सोच ता

हो तिरंगा सोच ता







सोमवार, 9 जून 2025

बकरीद विशेष: बलि प्रथा और हिंदू- माधव कृष्ण ८ जून २०२५ गाजीपुर

बकरीद विशेष: बलि प्रथा और हिंदू

(१)
कल व्हाट्सएप पर एक श्लोक अर्थसहित आया:

सिंहान्नैव गजान्नैव व्याघ्रान्नैव च नैव च|
अजापुत्रम् बलिम् दद्यात् देवो दुर्बलघातक:।

अर्थात् सिंह से नहीं , हाथी से नहीं, बाघ से नहीं, बकरी के बच्चे की बलि देनी चाहिए। यह कहने के बाद वह व्हाट्सएप संदेश कहता है: इससे सिद्ध होता है कि ईश्वर भी दुर्बलों को ही मारता है। यह बात गले के नीचे नहीं उतरती। जिस ईश्वर को हम दीनानाथ और दीनबंधु कहते हैं, वह दुर्बलों को क्यों मारेगा? जी ईश्वर की सत्ता सर्वत्र व्याप्त है, जिसके सभी संतानें हैं, वह अपने किसी भी संतान की बलि लेकर संतुष्ट कैसे होगा?

इस श्लोक से मुझे बकरीद की याद आ गई। कुर्बानी देने के लिए सर्वाधिक प्रचलित पशु बकरा है। बकरे के अतिरिक्त अन्य जो भी पशु कुर्बानी के लिए चुने जाते हैं वे हैं: गाय, भैंस, बैल, ऊंट इत्यादि। इसमें से ऐसा कोई भी पशु नहीं है जो बंधक बनाए जाने के प्रयास में मनुष्य को उचित हिंसक चुनौती दे सके। इसका अर्थ तो यही हुआ कि मनुष्यों ने अपनी सुविधानुसार पशुओं को बलि के लिए चुना और फिर उनके पक्ष में श्लोकों और आयतों का संदर्भ देना शुरू कर दिया।

इस्लाम में बकरीद की कुर्बानी का अब मुस्लिम समुदाय के अंदर ही विरोध प्रारंभ हो चुका है लेकिन इस श्लोक ने हिंदुओं में काफी समय तक प्रचलित बलि प्रथा की तरफ मेरा ध्यान आकर्षित किया। यहां तक कि अनेक तांत्रिक परम्पराओं में अश्वमेध, नरमेध जैसी बलि प्रथाएं आज भी यदा कदा सामने आ जाती हैं। समाचार पत्रों में ऐसे तांत्रिकों के गिरफ्तार होने की घटनाएं भी आती हैं जो लोगों को धनवान या पुत्रवान बनाने के लिए छोटे बच्चों या पड़ोसियों की बलि देने के लिए प्रेरित कर डालते हैं।

वेदों में अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख मिलता है। इसका सीधा सीधा अर्थ निकाला गया: यज्ञ में घोड़ों की बलि या कुर्बानी। वह तो भला हो महर्षि दयानंद सरस्वती का जिनसे अधिक वेदों का प्रामाणिक विद्वान आधुनिक इतिहास में नहीं मिलता। उन्होंने स्पष्ट किया कि अश्वमेध यज्ञ का अर्थ है: राजा द्वारा यज्ञ में अपनी समस्त सामर्थ्य का जनहित में बलिदान करने का संकल्प। अश्व ऊर्जा का प्रतीक है। इसलिए अश्व जहां जहां भी गया और यदि उसे किसी ने नहीं पकड़ा तो इसका अर्थ यह है कि वहां अराजकता है, वहां कोई राजा नहीं है। इसलिए अश्व छोड़ने वाला राजा का दायित्व है कि वहां के प्रजा की देखभाल और सुरक्षा करे।

तो इन श्लोकों के अनर्थ उन विद्वानों द्वारा निकाले गए जिन्हें मैं तामसिक विद्वान कहता हूं। तामसी बुद्धि का अर्थ है: बुद्धि तो है लेकिन वह विपरीत या उल्टा अर्थ निकालती है। राजसी बुद्धि का अर्थ है: अयथावत अर्थ निकालना, जो अर्थ होना चाहिए उससे अलग। यही हुआ है आज तक भारतीय दर्शनशास्र के साथ। यहां तक कि अनेक हिंदू धर्म के कट्टर समर्थकों ने भी इन श्लोकों का गलत अर्थ निकाला है और इस आधार पर बलि प्रथा जैसी कुप्रथाओं का समर्थन कर उन्हें बढ़ावा दिया है।

इस श्लोक में अजापुत्र शब्द आया है। अजा का अर्थ बकरी भी है और माया भी। अजा का अर्थ है, जिसका जन्म न हुआ हो। वेदों में त्रैधवाद है, अर्थात जीव, ईश्वर और प्रकृति तीनों अनादि हैं। इस तरह से माया अनादि हुई और अजा भी यानि अजन्मा। अजापुत्र का अर्थ है, माया का पुत्र। जैसे भागवत पुराण में अजामिल की कथा आई है और मैं हमेशा कहता हूं कि इन कथाओं का एक गूढ़ अर्थ है, उसे शब्दार्थ के आधार पर नहीं समझा जा सकता है। तो अजामिल का अर्थ हुआ, वह व्यक्ति जो माया से मिल चुका है।

अजामिल एक ब्राह्मण था, ब्रह्मचर्य में दीक्षित। एकदिन समिधा एकत्र करते समय वह एक वैश्या के सौंदर्य पर मोहित हो गया और सब कुछ छोड़कर उस पतिता के साथ जीवन यापन करने लगा। माया की कामना नामक शक्ति से उत्पन्न वासना से वह मिल गया। उसका तप समाप्त हो गया। उसने पुत्र का नाम नारायण रखा। मृत्यु शय्या पर उसने जैसे ही अपने पुत्र नारायण का नाम पुकारा, नारायण से जुड़ी हुई उसकी स्मृतियां कौंध गईं। उसे याद आया कि वह युवावस्था में कैसे त्रिसंध्या करता था और मंत्र पढ़ता था: ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्।

उसे अपना तपोमय जीवन और फिर वासनामय जीवन याद आ गए और उसने प्रायश्चित करने का संकल्प ले लिया। तपोमय जीवन में वापस लौटने के कारण वह धीरे धीरे स्वस्थ हो गया। अब हम इस कथा के प्रसंग से उपर्युक्त श्लोक को समझ पाएंगे। जब देवी के पास सिंह ले जाया गया, तो उन्होंने सिंह की बलि लेने से अस्वीकार कर दिया। जब उनके पास हाथी ले जाया गया तो उन्होंने हाथी की बलि लेने से भी मना कर दिया। और जब बाघ ले जाया गया तो उन्होंने भाग लेने से भी मना कर दिया।

उन्होंने पूछने पर कहा कि, मुझे अजापुत्र चाहिए। तो मोटी बुद्धि के लोगों ने अजापुत्र का अर्थ बकरी का बच्चा लगाया, और इस तरह से हिंदुओं के वाममार्गियों, शाक्तों और तांत्रिकों के मार्ग में बलि की प्रथा का आरंभ हुआ। जबकि अजापुत्र का अर्थ हुआ, माया का पुत्र। हम ईश्वर के अंश हैं। स्वामी विवेकानन्द बार बार याद दिलाते हैं कि हम देवताओं के पुत्र हैं, अमर की संतानें हैं। हमें अपनी दिव्यता याद रहनी चाहिए। लेकिन हम माया जनित विकारों में आकंठ लिप्त हो जाते हैं, जैसे धन सौंदर्य सत्ता कीर्ति बल इत्यादि और इनको पाने के लिए अनर्थकारी कृत्य करते हैं।

इस प्रकार हम देवपुत्र से अजापुत्र या मायापुत्र बन जाते हैं। देवी मां को इसी मायापुत्र की बलि चाहिए। और वह बलि भी कैसी? एक संकल्प कि, मां हम अपने सभी माया जनित विकारों से भरी बुद्धि और मस्तिष्क को आपके चरणों में अर्पित करते हैं, हमें शुद्ध भक्ति दो। इसी विकार युक्त सिर के सभी विकारों और कुविचारों को हम सिर के प्रतीक नारियल में डालकर, उस नारियल को फोड़ डालते हैं। हमारे आश्रम में प्रार्थना है, गुरु को सिर पर राखिए चलिए आज्ञा माहि। कह कबीर ता दास को तीन लोक डर नाहि। गुरु को सिर पर ही क्यों रखना है? क्योंकि सिर में माया की बुद्धि नहीं, गुरु प्रदत्त बुद्धि होनी चाहिए। तब मनुष्य सही मार्ग पर चलेगा।

माया द्वारा शासित मस्तिष्क दुर्बल होता है और भयग्रस्त होता है। जैसे पांडवों के पूर्वज राजा विचित्रवीर्य अत्यधिक संभोग के कारण शारीरिक रूप से कमजोर हो गए और असमय मर गए। सत्ता के लिए जीने वाले राजनेता हमेशा भयग्रस्त रहते हैं और सत्ता बनाए रखने के लिए लोगों की हत्या करवाने में भी संकोच नहीं करते। इस श्लोक में देवी कहती हैं कि, देवता दुर्बल को मारते हैं इसलिए मुझे अजापुत्र चाहिए। वास्तव में मायापुत्र रोगग्रस्त या तनावग्रस्त या भयग्रस्त होकर जल्दी मर जाते हैं, और मरे हुए लोगों के समान संवेदनहीन हो जाते हैं। इसलिए इस श्लोक का आह्वान है कि, अपने मस्तिष्क को देवी को अर्पण करो और उस देवी के निर्देश के अनुसार सत्य न्याय धर्म के मार्ग पर चलो। एक नया जीवन, और पुराने दुष्कर्मयुक्त जीवन का बलिदान।

इस लेख का मांसाहार से कोई सम्बन्ध नहीं। लेकिन पूजा पाठ और यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि चढ़ने वाली कुप्रथा में अंधा विश्वास करने वाले लोगों के लिए संभवतः यह लेख सत्य गूढ़ अर्थ अवश्य प्रस्तुत करेगा। वेदों में अश्वमेध इत्यादि के व्याकरण युक्त वैदिक अर्थ पर प्रकाश डालने के लिए सभी लोग महर्षि दयानंद सरस्वती की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढ़ सकते हैं। किसी और भाष्य पर विश्वास करने लायक नहीं है क्योंकि सायणाचार्य और मैक्समूलर से भी भाष्य में अनेक गलतियां हुई हैं, विशेषकर मैक्समूलर से जो संस्कृत के प्रामाणिक विद्वान नहीं थे। और उन्हीं मैक्समूलर के भाष्य को आधार बनाकर अनेक आधुनिक तामसिक विद्वानों ने वेदों के मूल अर्थ को समझने में अनजाने या जानबूझकर अक्षम्य गलतियां की हैं।

(२)
सनातन अध्यात्म को समझने के लिए केवल तीन शास्त्र पर्याप्त हैं: ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषद। लेकिन इनमें धर्म के सूक्ष्म तत्व हैं और सूक्ष्म तत्त्वों में प्रवेश करने के लिए सूक्ष्म मेधा चाहिए। यह कठोपनिषद का कथन है। इसके लिए विद्यार्थी वर्षों वर्षों तक गुरुकुल में रहकर गुरु के निर्देशानुसार भोजन करने और जीवन व्यतीत करने के बाद, सूक्ष्म बुद्धि वाले बन पाते थे। तब वे इस ब्रह्मविद्या ग्रहण करने के अधिकारी बनते थे। मोटी बुद्धि के लोग इन शास्त्रों का अर्थ नहीं समझ सकते। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के प्रवक्ताओं की कौन कहे, वोल्गा से गंगा पुस्तक में राहुल सांकृत्यायन से भी वेदों का अर्थ समझने में भारी भूल हुई है।

जनसामान्य अध्यात्म के सामान्य तत्त्वों से दूर न रहे, इसके लिए महर्षि वेदव्यास ने अठारह पुराणों की रचना की। सूक्ष्म बुद्धि वालों के लिए श्रुतियां हैं, मोटी बुद्धि वालों के लिए पुराण हैं क्योंकि इनमें रोचक कथाएं हैं। इन रोचक कथाओं  के माध्यम से सामान्य मनुष्यों को अपने इष्टदेव के और गुरु के प्रति निष्ठा और प्रेम का भाव विकसित करने की प्रेरणा मिलती है। इसीलिए वही सूक्ष्म आध्यात्मिक तत्व शिव, देवी, गणेश, स्कंद, नारायण इत्यादि अनेक देवों और देवियों के विभिन्न कथाओं के माध्यम से इन पुराणों में व्यक्त किए गए हैं। अनपढ़ या तामसिक लोगों के लिए ये सभी कथाएं विरोधाभासी लग सकती हैं। क्योंकि हर पुराण में ईश्वर के एक रूप को प्रधान और अन्य रूपों को छोटा बताया गया है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इन सभी पुराणों में सभी विशेषण, स्तुतियां और तत्त्वज्ञान एक ही है।

इसलिए एक मनुष्य को वही पुराण पढ़ना चाहिए जिसमें उसके इष्ट का महिमामंडन है। बार बार इन कथाओं को सुनने से मनुष्य के मन में श्रद्धा का भाव विकसित होता है। और कभी कभी संशय भी उत्पन्न होता है। यह संशय उत्पन्न होने के बाद वह जब अधिकारी गुरु से पूछता हैं, तब उसे इसका गूढ़ अर्थ पता चलता है। जैसे एक बार बाबा गंगारामदास से किसी ने पूछा कि, दया अवगुण कैसे बन जाती है? तो गुरुदेव ने श्रीमद्भागवत पुराण की प्रसिद्ध कथा के आधार पर कहा कि, देखो राजा जड़ भरत कैसे एक हिरण पर दया करने के कारण अंततः मोहग्रस्त हो गए थे। इसी तरह श्रीमद्भागवत पुराण पढ़कर स्वामी विवेकानंद को लगा कि इसमें दूध, दही के महासागर और पृथ्वी के मध्य में मेरु पर्वत की बात हो रही है। यह भूगोल के अनुसार गलत है। लेकिन स्वामी जी भी एक सामान्य भूल कर जाते हैं कि पौराणिक भाषा प्रतीकात्मक है, उसमें ऋषि सागर के माध्यम से यौगिक भाषा में सात चक्रों और पर्वत के माध्यम से शरीर के मेरुदंड की बात कर रहा है।

श्रीमद्भागवत पुराण में ही भगवान परशुराम द्वारा अपनी माता रेणुका के सिर काटने की घटना भी आती है। इस पर बड़ी कविताएं लिखी गईं और तामसिक विद्वानों ने इसके आधार पर समूचे भारतीय अध्यात्म दर्शन को पाखंड और स्त्री विरोधी घोषित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। जब मैं उनसे पूछता हूं कि, सिर काटा तो जोड़ा कैसे? तो वह कहते हैं कि, यह कवर अप करने के लिए कोरी कहानी है। इस तरह वे एक हिस्से को कहानी बना देते हैं और एक हिस्से को सत्य घटना। बहरहाल, वे लोग जो प्रोपगंडा के लिए जीते हैं, उन्हें सत्य के शोध और कथा के गूढ़ अर्थ से क्या लेना देना! उन्हें तो बस अपने पंथ से पुरस्कार और वाहवाही चाहिए।

बहरहाल, माता रेणुका जब पानी लेने गईं तब उन्होंने गंधर्वों के एक दल को जलक्रीड़ा करते देखा। गंधर्व अर्थात आजकल के बॉलीवुड वाले हीरो हीरोइन। गंधर्व अच्छा गाते हैं, नाचते हैं, बजाते हैं, अच्छे दिखते हैं, अच्छा कपड़ा पहनते हैं। माता रेणुका एक उदासीन आश्रम की विरक्त तपस्विनी थीं। इस नए संसार को देखकर उनका मन कामासक्त हो गया। अब वह आश्रम आने के बाद तपस्या में मन नहीं लगा पा रही थीं। उनके पति महर्षि जमदग्नि ने उनसे बातचीत करने के बाद पता लगा लिया कि वह कामविकार से ग्रस्त हैं।

उन्होंने अपने पुत्रों से उनका सिर काट देने को कहा लेकिन उनका भावार्थ केवल उनके छोटे पुत्र परशुराम समझ सके। वे ब्रह्मज्ञानी थे। उन्होंने अपनी माता रेणुका से बातचीत करके गंधर्वों के सांसारिक और भौतिक जीवन की नश्वरता का ज्ञान कराया और उन्हें याद दिलाया कि कैसे उन्होंने राजसी जीवन छोड़कर एक तपस्वी पति का स्वयंवर किया था ताकि वह आध्यात्मिक उन्नति कर सकें। माता रेणुका ब्रह्मविद्या ग्रहण कर कामरोग से मुक्त हो गईं। उनका एक नया जन्म हुआ। अब उनका वह पुराना मस्तिष्क नहीं रहा। एक तरह से प्रतीकात्मक रूप से परशुराम ने उनका सिर काट दिया। जब वह अपने पिता से कहते हैं कि, मेरी माता को स्वीकार करो, मैंने उनका पुराना सिर काट दिया है और अब वह नए सिर के साथ हैं। तब महर्षि जमदग्नि प्रसन्न हुए कि उनका पुत्र परशुराम ब्रह्मज्ञ हो चुका है।

द्विज का अर्थ दूसरी बार जन्म लेने वाला। क्या हम वास्तव में दुबारा जन्म लेते हैं? नहीं, सारा खेल तो बुद्धि या मस्तिष्क का ही है। इसलिए कुर्बानी या बलिदान का अर्थ भी समझना होगा। ज्ञान प्राप्त करना और उसके अनुसार आचरण करना ही दूसरा जन्म है। मुझे पूरी आशा है कि इस्लाम में भी कोई उठेगा और बकरीद पर दी जाने वाली कुर्बानी का भावार्थ सामने रखकर अपनी सीमित सामर्थ्य में ही सही, पर सत्य सामने रखेगा। मैं इंटरनेट पर बॉलीवुड के मुस्लिम सितारों से लेकर अन्य विद्वानों की बकरीद के मूल अर्थ को समझाने के प्रयास देख रहा हूं। और विद्वानों का अर्थ केवल समझाना है। समझेगा केवल वही जो समझना चाहता है।

(३)
इसी प्रकरण में मुझे कबीर साहब भी याद आते हैं। कबीर साहब हमारे आश्रम के पूर्वज गुरु हैं। हमारी गुरु परम्परा के मध्य गुरु स्वामी रामानंद हैं, उनके १२ महाभागवत शिष्य थे। इनमें हमारी गुरु परम्परा के स्वामी भावानंद जी कबीर साहब के गुरुभाई थे। स्वामी रामानंद ने अधिकारी भेद से कबीर साहब को निराकार राम की भक्ति और स्वामी भावानंद को साकार राम की भक्ति की दीक्षा दी थी। 

कबीर साहब की भाषा भी पुराणों की तरह ही यौगिक और गूढ़ है। सामाजिक विषमताओं पर बार बार प्रहार करने के कारण वह सभी के प्रिय और पूज्य हैं। एक वर्ग के लिए वह विशेष प्रिय बन सके और उसने उन्हें सिर माथे पर बैठा लिया क्योंकि उस वर्ग को उनके माध्यम से सनातन धर्म के विषय में दुष्प्रचार करने में सहायता मिलती है। जब हम एकांगी होकर कबीर साहब के किसी एक पक्ष को ही पकड़ पाते हैं तब कबीर साहब आत्मकल्याण के गुरु न होकर, उस पंथ के हथियार बन जाते हैं, उसी प्रकार जैसे भगवान बुद्ध भी आज कुछ विशेष सम्मोहित लोगों के हथियार बने हुए हैं।

कबीर साहब के अनेक ऐसे पद हैं जहां वे खुलकर आत्म बलिदान या कुर्बानी की बात करते हैं। क्योंकि उनकी भाषा आधुनिक हिंदी के निकट है इसलिए हम उसे समझ पाते हैं। लेकिन यदि हम पुनः उसके शब्दार्थ पर चले जाएं तब तो युद्ध करने, सिर काट लेने और शरीर नष्ट कर देने से ही हम कबीरपंथी बन पाएंगे। अब हम ऐसे कुछ पदों पर दृष्टि डालते हैं:

गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव।
खेत बुहार्या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव॥1॥
भावार्थ: गगन में युद्ध के नगाड़े बज उठे, और निशान पर चोट पड़ने लगी। शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, तब कहता है कि `अब मुझे कट-मरने का उत्साह चढ़ रहा है।'

`कबीर' सोई सूरिमा, मन सूं मांडै झूझ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज॥2॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - सच्चा सूरमा वह है, जो अपने वैरी मन से युद्ध ठान लेता है, पाँचों पयादों को जो मार भगाता है, और द्वैत को दूर कर देता है। [ पाँच पयादे, अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर। दूज अर्थात द्वैत अर्थात् जीव और ब्रह्म के बीच भेद-भावना।]

`कबीर' संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहा, और हरि से लगन जुड़ गई। इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में।

सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत॥4॥
भावार्थ - शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है। पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता।

अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर॥5॥
भावार्थ - अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है। साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं, कभी हिचकता नहीं। यहां सिर सौंपने का अर्थ वही है, अपनी बुद्धि नहीं अपने गुरु की बुद्धि से आध्यात्मिक मार्ग पर चलना।

जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद॥6॥
भावार्थ - जिस मरण से दुनिया डरती है, उससे मुझे तो आनन्द होता है ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को ! यह मरना बाबा गोरखनाथ की भाषा में है, मरो हे जोगी मरो। मरने का अर्थ है अपने सभी विकारों और सांसारिकता को मार देना, न कि आत्महत्या करना।

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर॥7॥
भावार्थ - बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं। यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता है।

`कबीर' यह घर पेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं॥8॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - यह प्रेम का घर है, किसी खाला का नहीं , वही इसके अन्दर पैर रख सकता है, जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले। [ सीस अर्थात अहंकार। पाठान्तर है `भुइं धरै'। यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जचता है। सिर को उतारकर जमीन पर रख देना, यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूर-वीरता और निरहंकारिता को व्यक्त करता है।] सिर को काटने से वही तात्पर्य है जो महर्षि जमदग्नि द्वारा माता रेणुका का सिर काटने से है। अर्थात दूसरा जन्म लेना द्विज की भांति।

`कबीर' निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद॥9॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम ही है। मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा। प्रेम रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता है, जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय। यहां भी सिर वैसे ही काटना है जैसे भगवान परशुराम ने माता रेणुका का सिर काटा था अर्थात अहंकारी काम विकार वाले सिर का परिशोधन। द्विज बन जाना।

प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥10॥
भावार्थ - अरे भाई ! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता है यह महँगा है और सस्ता भी - यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर देकर खरीद ले जा सकता है। जब तक हम पाने अहंकार से भरे मस्तिष्क के साथ हैं तब तक हम प्रेम नहीं कर सकते।

`कबीर' घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥11॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - क्या ही मार-धाड़ मचा दी है इस चेतन शूरवीर ने।सवार हो गया है प्रेम के घोड़े पर। तलवार ज्ञान की ले ली है, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर वह चोट- पर-चोट कर रहा है। 

जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ।
धड़ सूली सिर कंगुरैं, तऊ न बिसारौं तुझ॥12॥
भावार्थ - मेरे अगर उतने भी शत्रु हो जायं, जितने कि रात में तारे दीखते हैं, तब भी मेरा धड़ सूली पर होगा और सिर रखा होगा गढ़ के कंगूरे पर, फिर भी मैं तुझे भूलने वाला नहीं।

सिरसाटें हरि सेविये, छांड़ि जीव की बाणि।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि॥13॥
भावार्थ - सिर सौंपकर ही हरि की सेवा करनी चाहिए। जीव के स्वभाव को बीच में नहीं आना चाहिए। सिर देने पर यदि हरि से मिलन होता है, तो यह न समझा जाय कि वह कोई घाटे का सौदा है।

`कबीर' हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ।
जबलग आस सरीर की, तबलग दास न होइ॥14॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -हरि तो सबका ध्यान रखता है,सबका स्मरण करता है , पर उसका ध्यान-स्मरण कोई नहीं करता। प्रभु का भक्त तबतक कोई हो नहीं सकता, जबतक देह के प्रति आशा और आसक्ति है।

कबीर साहब के इन चुनिंदा पदों को यदि भावार्थ की दृष्टि या आध्यात्मिक दृष्टि से न पढ़ा जाय तो वह हिंसक, पिछड़ा, आत्महत्या और दूसरों की हत्या के लिए प्रेरित करने वाले धर्मगुरु के रूप में जाने जायेंगें। लेकिन ऐसा नहीं है। उनसे बड़ा धर्मगुरु नहीं है। वह महानतम आध्यात्मिक सूर्यों में से एक हैं। यह प्रतीकात्मकता भी भारतीय दर्शनशास्र और अध्यात्म की खूबी है। इसे गुरुकृपा का अंजन लगाकर पढ़ने से वास्तविक अर्थ प्रकट होता है। बाबा गंगारामदास कहते हैं कि, शास्त्रों पर ताला लगा है। इसलिए उसे पढ़कर भी उसका अर्थ दृष्टिगोचर नहीं होता। इसकी चाभी या कुंजी गुरु के पास है, जब वह कृपा करके यह चाभी दे देते हैं तभी इसका अर्थ स्पष्ट हो पाता है।

माधव कृष्ण, ८ जून २०२५, गाजीपुर



शुक्रवार, 6 जून 2025

युद्ध के दोहे- डॉ एम डी सिंह

 युद्ध के दोहे


शत्रु पर न करें कभी, आप पूर्ण विश्वास।

बदले की मिटती नहीं,कभी अधूरी प्यास।।


निर्बल को निर्बल सदा,कभी न समझें आप।

मिलते मौका एक दिन,गरदन  देगा नाप।।


घायल कर ना छोड़िए, कभी कहीं भी सांप।

कूंच मस्तक दफनाइए,देख जाय रुह कांप।।


सारे विकल्प तलाशिए,युद्ध को अंतिम मान।

माने  दुश्मन यदि नहीं, फिर तो लीजै ठान।।


चाणक्य नीति जो कहती,पढ़ें लगाकर ध्यान।

आंखें खोल कर रखिए,खोले रखिए कान।।


आक्रामक ही जीतता,कहे युद्ध विज्ञान।

घुसकर घर में मारिए ,डरा रहे शैतान।।


होएं बज्र सी अस्थियां ,छाती हो आकाश।

मांगे जितना भी धरा, उतना रक्त हो पास।।


बैठे देश न देखकर ,जन-जन दौड़ा जाय।

बाल एक न हो बांका,वीर कसम जो खाय।।


रहें सदा तत्पर रण को, भरे जीत का भाव। 

उफ भी न निकले मुख से, लगे देंह जो घाव।। 


कायर सदैव धरा पर, रहे देश के भार।

उसे नपुंसक जानिए, जो स्वीकारे हार।।


डॉ एम डी सिंह



जगा-जगा रे जगा सिपाही- डॉ एम डी सिंह

 जगा-जगा रे जगा सिपाही

भर रोम-रोम आक्रोश प्रचण्ड  

लिए धमनियों में स्पंदन अखण्ड 

विध्वंस को आंदोलित मन से 

करने को आतुर अरिदंभ खण्ड 


निकला आलस्य त्याग सिपाही

जगा-जगा रे जगा सिपाही


रण बिगुल बजा दुष्ट थर्राया 

कंपित सागर, निलय भहराया 

कर धू-धू जल उठा विरोधी 

हुई सकल छिन्न-भिन्न काया 


भरता चहुंदिस आग सिपाही 

जगा-जगा रे जगा सिपाही 


मृत्यु सारथी युग दर्शक है 

स्वाभिमान यूं बलवर्धक है

वायु रुके और पर्वत डोले 

गर्जना ऐसी लोमहर्षक है


रचता विप्लव राग सिपाही 

जगा-जगा रे जगा सिपाही  


शिव तांडव साक्षात कर रहा

नरसिंह सा आघात कर रहा

कंटकों की जड़ दही डालता

वह चाणक्य सी बात कर रहा 


रहा अमोघ अब दाग सिपाही 

जगा- जगा रे जगा सिपाही


डॉ एम डी सिंह



बुधवार, 4 जून 2025

संसार के लोगों से आशा ना किया करना जब कोई न हो अपना श्री राम जपा करना।

संसार के लोगों से आशा ना किया करना,

जब कोई न हो अपना, श्री राम जपा करना।


जीवन के समंदर में तूफ़ान भी आते हैं,
जो प्रभु के भरोसे हैं, प्रभु आप बचाते हैं,
वो खुद ही आएँगे, तुम नाम जपा करना,
तुम नाम जपा करना, श्री राम जपा करना,
संसार के लोगों से आशा ना किया करना,
जब कोई न हो अपना, श्री राम जपा करना।

दावा ना जमा लेना ये देश बेगाना है,
इस घर में तो प्राणी, वापिस नहीं आना है,
मेरे राम की किरपा से, तुम भजन किया करना,
तुम भजन किया करना, श्री राम जपा करना,
संसार के लोगों से आशा ना किया करना,
जब कोई न हो अपना, श्री राम जपा करना।

हे दास न रो दुःख से, प्रभु तुम से दूर नहीं,
भक्तों का दुखी होना, प्रभु को मंजूर नहीं,
आता है सदा उनको भक्तों पे दया करना,
भक्तों पे दया करना, श्री राम जपा करना,
संसार के लोगों से आशा ना किया करना,
जब कोई न हो अपना, श्री राम जपा करना।

संसार के लोगों से आशा ना किया करना,
जब कोई न हो अपना, श्री राम जपा करना।
संसार के लोगों से आशा ना किया करना,
जब कोई न हो अपना, श्री राम जपा करना।