मैं आत्मा हूँ
बात २०१५ की है. मैंने सिंगापोर और सिटीबैंक की नौकरी छोड़ दी थी और गाजीपुर आ चुका था. मेरी पुत्री आद्या अभी २ साल की थी इसलिए उसे कोई फर्क नहीं पड़ा. लेकिन मेरा पुत्र अव्यय, जो कि ११ वर्ष का हो चुका था, इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर सका.
जब उसकी कक्षा में अध्यापक उससे उसकी जाति पूछते थे तो वह चिढ़ जाता था. नाम के आगे कोई सरनेम नहीं होने से कभी कभी उसके मित्र मजाक उड़ाते थे और पूछते थे कि, "अव्यय कृष्ण! यह कैसा नाम है? जाति छिपाने का अर्थ है कि तुम चमार हो."
वह कभी रोकर पूछता था कि जाति क्या है और चमार कौन होते हैं, तो मैं उसकी पीड़ा समझ पाता था. उसे यह समझने में अनेक वर्ष लग गए कि जाति के बिना भी जिया जा सकता है; और यह कि हम रैदास की भी वंशज हैं, श्रीकृष्ण के भी, कबीर के भी, सुभाषचंद्र बोस के भी और भगवान राम के भी।
अपनी नयी यात्रा में मैंने अव्यय को जबरदस्ती सम्मिलित कर लिया था, और उसका दंश वह झेल रहा था. उसने सिंगापोर का वह संसार देखा था जहां जातियां नहीं पूछी जाती थीं, योग्यता सब कुछ थी और राष्ट्रीयता भारतीय थी. आद्या छोटी थी और शिखा बहुत परिपक्व, इसलिए ये दोनों मेरी यात्रा में सहजता से सहयात्री बन गए, लेकिन अव्यय!
एक दिन वह सुबह सुबह विद्यालय जाने के लिए तैयार हो रहा था. उसे किसी बात पर गुस्सा आया था और वह अपनी माँ से चिल्ला चिल्ला कर रोष व्यक्त कर रहा था. माँ बाप को बच्चों के चिल्लाने और झगड़ने पर परेशान नहीं होना चाहिए. जब तक वे अपनी भावना माँ या पिता किसी से भी साझा कर रहे हैं, तब तक सब कुछ ठीक है.
यदि माँ पिता बच्चों को उनके सहज स्वभाव और सहज अभिव्यक्ति के साथ स्वीकार नहीं करते, बार-बार रोकते टोकते हैं तो धीरे धीरे बच्चे उनसे या तो दूर हो जाते हैं, या कृत्रिम. दोनों ही खतरनाक है. दूर होने का अर्थ है - वे उन लोगों के पास जायेंगे जो उनकी सुनेंगे और जब बाहरी लोग हमारे बच्चों के जीवन में घुस आते हैं तो वे किसी भी तरह से हमारे बच्चों के जीवन को गलत दिशा में मोड़ सकते हैं.
कृत्रिम होने का अर्थ है असहज होना, असहजता बच्चों में एक ग्रंथि बनाती चली जाएगी जिसमें वे खुद को समग्रता से स्वीकार नहीं कर पायेंगे. खुद को गलतियों, असफलताओं और विशेषताओं के साथ स्वीकार न कर पाने के कारण ही, आज अनेक बच्चे और किशोर आत्महत्या कर रहे हैं. मैं इस विषय में सौभाग्यशाली हूँ कि मेरी पत्नी शिखा के पास अव्यय की बातें सुनने और गुस्सा झेलने का असीम धैर्य और पर्याप्त समय था.
जब अव्यय विद्यालय जाने के लिए तैयार हो रहा था तभी एक आध्यात्मिक संस्था के वयोवृद्ध स्वयंसेवक अपनी मासिक पत्रिका देने के लिए घर आये. मैं उनसे बैठकर बात कर रहा था. उन्हें अव्यय के चिल्लाने की आवाज सुनायी दी. उन्होंने पूछा, “कौन बच्चा इतने गुस्से में है? क्या यही तरीका है अपनी माँ से बात करने का?”
“मेरा पुत्र है, अव्यय.” मैंने झेंपकर कहा.
“बुलाइए उसको. मैं समझाता हूँ. बच्चों को बचपन से आध्यात्मिक शिक्षा देनी चाहिए. हम सभी अपने स्वरूप से भटक चुके हैं. इसीलिये हम जन्म-मृत्यु के भंवर में पड़कर भवसागर में डूब रहे हैं. आप उसको लेकर मेरी संस्था में आया कीजिये.”
उनका वचन तो अच्छा था लेकिन मैं डर रहा था. मुझे लगा कि यदि अव्यय को उन्होंने यह शाश्वत ज्ञान इस समय सुनाया तो समकालीन परिस्थिति में उसे संभालना मुश्किल होगा, और शायद उसका परशुराम स्वरुप सामने न आ जाय. यह भी संभव था कि उसका कामरेड समग्र क्रान्ति कर बैठे.
बहरहाल, अब एक वरिष्ठ चाचाजी की आज्ञा थी तो बेटे को अकेले में ले जाकर समझाया, “अव्यय! प्लीज चलो. चाचा जी बुला रहे हैं. कुछ समझाएं तो चुपचाप सुन लेना.” मैं मिन्नतें कर रहा था.
“नहीं, मुझे नहीं जाना, क्यों आ जाते हैं ये लोग सुबह-सुबह? मुझे देर हो रही है. गाजीपुर में सब केवल समझाने में लगे हैं. कोई कुछ बदलता तो है नहीं.” मुझे उसकी बात सही तो लग रही थी. बिना आमन्त्रण के जाना भी नहीं चाहिए और सलाह भी नहीं देनी चाहिए. लेकिन मामला अभी फंसा हुआ था. बहरहाल, बहुत समझाने पर पापा की इज्जत रखने के लिए अव्यय विद्यालय का बस्ता टाँगे हुए सामने आया.
“प्रणाम बाबा.”, अब वह गाजीपुर के माहौल में अभिवादन करना सीख चुका था.
“खुश रहो बेटा! मुझे तुमसे कुछ बातें करनी हैं जो तुम्हारे जीवन में आगे काम आएँगी. बोलो, क्या तुम जानते हो कि तुम कौन हो?”, चाचाजी ने एक लम्बे एकल एकतरफा व्याख्यान का अवसर भांपते हुए आराम से पूछा.
“जी मैं जानता हूँ. मैं यह शरीर नहीं, आत्मा हूँ. मैं आत्मा हूँ.”, अव्यय के अंदर बैठे आदि शंकर ने बहुत सहजता से कहा.
मेरी हंसी छूट गयी. मैं ठहाके मारकर हंसने लगा और चाचा जी हाथ जोड़कर खड़े हो गए. उन्होंने कहा, “मैं किसको समझाने चला था? इस उम्र में यह महाज्ञान! धन्य हैं आप.” और वह चले गए.
इस घटना को आज 9 वर्ष बीत चुके हैं. अब भी मैं जब इसे सोचता हूँ तो हँसे बिना नहीं रह पाता. मैं जब उसे छोड़ने के लिए विद्यालय ले जा रहा था तब मैंने पूछा, “अव्यय! मैं खुद सकते में हूँ कि तुमने इतनी बड़ी बात इतनी आसानी से कैसे कह दी?”
उसने कहा, “पापा! मैं तुम्हारे साथ रामकृष्ण मिशन में बैठता था, तो ये सब आम बात थी. मुझे लगा कि आज बाबा बहुत चाटने वाले हैं तो उनको चुप करवाने के लिए मैंने सीधा अंतिम सत्य बता दिया.”
अब अव्यय को जब इस घटना की याद दिलाता हूँ तो हम दोनों साथ में खूब हँसते हैं. हंसना निर्विकार क्रिया है, आत्मा निर्विकार है और हम आत्मा हैं!
-माधव कृष्ण, गाजीपुर, २९ नवम्बर २०२४
The Presidium International School Ashtabhuji Colony Badi Bagh Lanka Ghazipur
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