मंगलवार, 6 अगस्त 2024

मोहर्रम और कांवड़ यात्रा आस्था के प्रश्न- लेखक श्री माधव कृष्ण ग़ाज़ीपुर

मोहर्रम और कांवड़ यात्रा: आस्था के प्रश्न

मोहर्रम के हथियार और खून के मातम से आम जनता को उतनी ही समस्या है जितनी कांवड़ यात्रियों के डी जे के कर्णभेदी संगीत पर रास्तों में असभ्य तरीकों से नाचते हुए रास्ता जाम करने से. दोनों में भेद नहीं है. दोनों आस्था के प्रश्न हैं, दोनों मजहब के शक्ति प्रदर्शन का तरीका हैं. दोनों पर अलग-अलग सरकारों का रुख अपने अपने वोट बैंक को साधने की विवशता है.

पहले, मोहर्रम पर बात कर लेते हैं. हम एक महापुरुष को अन्यायपूर्ण तरीके से मारे जाने पर मातम मनाते हैं. लेकिन भीड़ में हथियार से खुद को चोट पहुंचाते हुए और खून बहाते हुए कैसा मातम? मातम मनाना तो तब सार्थक होता जब हमारा संकल्प होता कि अब हम ऐसे किसी अन्याय को नहीं होने देंगे.

मैं एक मुस्लिम विद्वान से बात कर रहा था और वह कह रहे थे कि ईश्वर के संदेशवाहक पैगम्बर मोहम्मद साहब 8 जून 632 ई तक इस धरती पर रहे. कर्बला की घटना 10 अक्टूबर, 680 ई को हुई. इस तरह की अनेक दुर्घटनाएं इतिहास में दर्ज हो चुकी हैं. यहाँ तक कि जलियाँवाला बाग़ की घटना पर भी मातम मनाना चाहिए. इस्लाम और पैगम्बर ने मातम मनाने की व्यवस्था नहीं दी है, लेकिन अब यह परम्परा का रूप ले चुका है.

उनका कहना था कि, खुद वह इसके विरोधी हैं लेकिन परम्परा में आ जाने के कारण अब उनके घर से ताजिया उठता है, और उनकी असहमति के बावजूद इसे रोक पाना उनके हाथ में नहीं है. लेकिन उनकी एक बात बड़ी अच्छी लगी कि, हम सब एक किरदार निभाने आये हैं. उस किरदार को पूरी शिद्दत से निभायेंगे, भले हमें कोई सुने या न सुने.

हिन्दू ही नहीं, अनेक अमनपसंद मुसलमान भी इस तरह के मातम को ह्रदय से स्वीकार नहीं कर पाते हैं. इस्लाम एक शुद्धतावादी धर्म है. इसने अपनी शुद्धता को बचाए रखने के लिए आख़िरी पैगम्बर और अंतिम किताब भी दे दी लेकिन मुख्य हदीस से अलग अनेक हदीसें लिखकर इस्लाम के मूल सिद्धांतों से समझौते किये गए, इस्लाम के विद्वानों ने एक नया शब्द दिया, ज़ईफ़ हदीस या कमज़ोर हदीस.

हदीस की शब्दावली के विज्ञान में, यह एक ऐसी हदीस को संदर्भित करता है जिसके वर्णनकर्ताओं के पास अच्छी नैतिकता नहीं होती है या जिनकी याददाश्त कमजोर होती है। एक कमजोर हदीस वह है जिसमें सहीह और अच्छी हदीस के गुण नहीं पाए जाते हैं। हदीस इस्लामिक पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के कथनों, कार्यों या आदतों का वर्णन करने वाले विवरण या रिपोर्ट को कहते हैं। यह शब्द अरबी भाषा से आता है और इसके अर्थ "रिपोर्ट (विवरण)", "लेखा" या "रिवायत" हैं.

कांवड़ यात्रा का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है. कहते हैं, कांवड़ यात्रा का संबंध सागर के मंथन से है. जब अमृत से पहले विष निकला और दुनिया उसकी गर्मी से जलने लगी, तो महादेव शिव ने विष को अपने अंदर धारण कर' लिया. त्रेता युग में, शिव के भक्त रावण ने कांवड़ का उपयोग करके गंगा का पवित्र जल लाया और इसे पुरामहादेव में शिव के मंदिर पर डाला। इस प्रकार शिव को विष की नकारात्मक ऊर्जा से मुक्ति मिली.

यह घटना अविश्वसनीय और हास्यास्पद है. भगवान शिव को विष पीड़ित करेगा, यह सोचना भी असंभव है. बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी. त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी.. चर अरु अचर नाग नर देवा. सकल करहिं पद पंकज सेवा...जिस महादेव से विष से भरे सर्पराज वासुकि लिपटे रहते हों, उन्हें विष से फर्क भी पड़ता होगा, यह सोचना भी आस्था से खिलवाड़ है.

तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा।। हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी।। श्रीरामचरित मानस की यह चौपाई भगवान शिव के विषय में सब कुछ कह देती है. जब कामदेव को जला दिया गया, और यह सूचना देते हुए ऋषियों ने माता पार्वती से उनके विचित्र व्यवहार की शिकायत की, तब माता उमा ने कहा कि सदायोगी शिव अजन्मा, अनिंद्य, कामरहित और भोगहीन हैं. उन्हें कोई विकार छू ही नहीं सकता है.

उस महायोगी निर्विकार महाकाल भगवान महादेव के भक्तों को बियर और शराब खरीद कर पीते हुए और नाचते हुए देखना किसी भी शिवभक्त के गले नहीं उतरेगा. रास्तों पर परेशानी, सो अलग से. सच बताऊँ, तो एक हिन्दू होने के बाद भी कांवड़ यात्रा में असभ्यता के इन वीभत्स चित्रों से मैं असहज हो जाता हूँ. इन यात्राओं में झगड़े भी होते हैं और आम आदमी को तकलीफें भी. महादेव शिव के गुणों को धारण करने के संकल्प से बड़ा कौन सा अभिषेक भगवान को प्रसन्न करेगा?

अब प्रश्न यह उठता है कि, इसका समाधान क्या है? क्योंकि सरकारें अपने अपने वोट बैंक को साधती हैं. एक सरकार मोहर्रम को प्रश्रय देते हुए सड़कों पर नमाज तक की अनुमति दे देती है, तो दूसरी सरकार कांवड़ यात्रियों पर पुष्प वर्षा करती है. मैंने कभी किसी सरकार को सड़कों पर बच्चों को पढ़ने पढ़ाने की अनुमति देने की खबर नहीं पढ़ी, और न ही कभी किसी सरकार को स्कूल जाने वाले बच्चों पर फूल बरसाते हुए देखा.

इसका समाधान यही है कि, आस्था और राजनीति के उन प्रदर्शनों को सड़कों के स्थान पर स्टेडियम में सीमित कर दिया जाय, जहाँ पर उस आस्था और विचारधारा के लोग जाकर अपने अपने काम कर सकें. वहां वे खून बहायें, नारे लगाएं, नाचें या पीयें, आम जनता इससे अप्रभावित रहेगी. लेकिन स्टेडियम से बाहर उन्हें सामान्य नागरिकों की ही तरह सभी नियमों को मानते हुए और किसी की समस्या का कारण न बनते हुए चलना पड़ेगा.

यदि यह हो पाया तो जनसामान्य को सहज जीवन जीने में मदद मिलेगी. जनता उन लोगों को सुनती है और समझती है जो लोग उसे और असभ्य बनाने में लगे हुए हैं. कट्टरता की भाषा मनुष्य के सहज आक्रामक मन को भाता है. लेकिन जनता उन लोगों से दूर भागती है जो उसे संस्कारित करने का प्रयास करते हैं और सही बात बताते हैं. फिर भी मेरे उस मुस्लिम विद्वान मित्र की भाषा में, अपने किरदार को तो जीना ही पड़ेगा, आवाज तो लगानी ही पड़ेगी. प्रश्न कोई भी हो. और आस्था किसी प्रश्न से बढ़कर नहीं है.

माधव कृष्ण, ६ अगस्त २०२४, गाजीपुर



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