गंगेश के चार गीत'
'कुरुक्षेत्र बनते गांव'
आपसी
विद्वेष में कुरुक्षेत्र बनते गांव।
नफरतों
की चुभन सह पाते नहीं हैं पांव।।
सभ्यता
की गगनचुंबी ढह रही मीनार,
बांटती
हर घर का आंगन, नित नई दीवार,
मौत
के साए में सहमे हर गली हर ठांव।
थरथराते
होंठ की छलनी हुई मुस्कान,
दर्द
की मुट्ठी में बंधकर चीखते इंसान,
वेदना
की तपन में घुटती-सिसकती छांव।
दहशतों
की धौंस से कुम्हिला गए संबंध,
हर
निकलती सांस की बारूद जैसी गंध,
आग
की लपटें लिए हैं आज हर लखरांव।
गुनगुनाएं
आइए सद्भावना के गीत,
जो
अछूते प्यार से, दे दिल उन्हें लें जीत,
जादुई
अभियान यह जाने न पाए बांव।
'कोहराम'
तपन
दे रही सुबह निगोड़ी घुटन दे रही शाम।
शीतल
मंद हवा के झोंके जाने किसके नाम।।
झुलस
गईं सारी आशाएं लिए हृदय में मोह,
चेहरे-चेहरे
पर अंकित दहशत का पूर्ण विराम।
सीमाओं
को पार कर रहा पैमाने का पारा,
जिधर
देखिए मचा हुआ आपाधापी कोहराम।
शुष्क
होंठ पर जीभ फिराते पांवों के छाले सलाते,
भटक
रहे हैं तपते मरुस्थल में प्यासे परिणाम।
सांस-सांस
कह रही उमस को सह लो मेरे मीत,
यही
उमस लेकर आएगी अगले क्षण अभिराम।
धौंस
हांफ-हांफकर
बीत रहे दिन, कांप-कांपकर रात।
शाम
निगोड़ी लेकर आती हिंसा का आधात।।
ऋतु
बसंत भी जहर घोलता अब तो सांसो में,
छलने
की साजिश है हर सतही विश्वासों में,
देहरी
लांघ नहीं पाती है अंतर्मन की बात।
दरवाजे
पर धौंस जमाती रह-रह शोख हवा,
घर-आंगन
ऐसे लगते हैं, जैसे गर्म तवा,
हंसी-खुशी
के वोट तले होती नफरत की घात।
आतंकी
उन्मादों से सब गलियां चीख रहीं,
छिन्न-भिन्न
सुख-सपनों की कुंडलियां दीख रहीं,
अनचाहे
बेमौसम होती रह-रहकर बरसात।
सांस-सांस
विश्वास जगे और खुले ज्ञान के ताले,
निश्छल
मन से गले मिलें सब मस्जिद और शिवाले,
मिले
सभी को शांति-एकता समृद्धि की सौगात।
विश्वास
देख
रहा हूं आहत सपने मैं पल-पल, छन-छन।
विश्वासों
की कुल-बधुओं का होता चीरहरन।
नफरत
के चाकू से बिंधकर तड़प रहे संबंध,
सांस-सांस
में राग-द्वेष की तीखी-कड़वी गंध,
व्यर्थ
हो गए पूजा के रोली अक्षत-चंदन। आश्वासन की टहनी पर आशाएं झुलस गईं,
बूंद-बूंद
के लिए होंठ की प्यासें तरस गईं, घुटन भरे अनुभवों में है सहमा हुआ रुदन।
मुखरित
संवादों में फिर भी हैं आस्था के स्वर, मंजिल अपनी ढूंढ रही है हर मायूस नजर,
अभिलाषा
है तपकर भी बन जाने को कुंदन।
रचनाकार
डॉ. गजाधर शर्मा 'गंगेश'
'गंगेश सदन', नंदगंज, गाज़ीपुर-233302
दूरभाष-8601449738
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