रविवार, 2 अप्रैल 2023

ग़रीबी नहीं बिकती पर गरीब बिकते हैं. निष्ठा का आधार भूख है और भोजन बिकता है- श्री माधव कृष्ण जी

शुक्र है!
-माधव कृष्ण, ०२.०४.२३

(१)
शुक्र है धन है!
धन है तो विज्ञापन है
विज्ञापन है तो -
राजनीतिज्ञ हैं
साहित्यकार हैं
शिक्षक हैं.
शुक्र है! धन है
अन्यथा देश में
न राजनीतिज्ञ दिखते
न साहित्यकार
न विद्यालय.
बस दिखती शुद्ध प्रतिभा!

(२)
शुक्र है धन है!
धन है तो क्रयशक्ति है -
खरीद सकती है पुरस्कार
निकाल सकती है अपनी अज्ञात रचनाओं पर विशेषांक
आयोजित कर सकती है बड़ी गोष्ठियां
निर्मित हो सकते हैं अल्पकालीन साहित्यकार.
और इस क्षणिक प्रतिष्ठा के शृगाल आसन से
दिख सकती है मुड़ती हुई साहित्य की धारा.
पर एक दिन वर्षा होगी
और रंगरेज पकड़े जाएगा
रँगे सियार की भाषा उजागर होगी.
वर्षा के बाद आसमान साफ़ होगा और
रह जायेंगे
सूर सूर्य
तुलसी शशि.

(३)
धन है तो
खरीद सकते हैं मुर्गा
शराब और दंगाई,
ग़रीबी नहीं बिकती
पर गरीब बिकते हैं.
निष्ठा का आधार भूख है
और भोजन बिकता है.
वैचारिक संघर्ष में दो भक्त हैं -
एक भूख के और एक भजन के.
भूख जीत जाती है
और आका बनाते रहते हैं
लाखों करोड़ों और अरबों.
संसद भी जीवंत रहती है
सड़क भी.
शुक्र है भीड़ खरीदी जाती है
अन्यथा
सड़कों पर दीखते
केवल वे मुद्दे जो केवल और केवल जनता के हैं.

(४)
शुक्र है कि धन के साथ जाति है
इन के गोश्त में
कुछ प्रबंधक भेजते हैं दलाल
ताकि हलाल हो सके उनका प्रतिस्पर्धी.
चाहे राजनैतिक या व्यावसायिक या वैचारिक या साहित्यिक.
धन से जाति के नाम पर खरीदे गए उनके दलाल
काम खराब नहीं कर सकते हैं
तो नाम खराब करने का प्रयास करते हैं.
नाम खराब करने के लिए
उन्हें वराह अवतार लेना पड़ता है.
कीचड़ और गन्दगी में डूबकर
उन्हें भेजना पड़ता सन्देश
जिसके अंदर से झांकती है उनकी
धूमिल चेष्टा.
पर यह तो तय है कि बारिश होगी.
मौन की गूँज उठेगी.
पंकजनयन न्याय की लाठी से आवाज नहीं आती.
धुल जाएगा पंक
निखर उठेगा पंकज
कराह उठेंगे काज़ी
और रह जाएगा वही
जो सच है.
शुक्र है...बारिश होती है!

(५)
बिना आमन्त्रण जाना मत
बिना निमंत्रण खाना मत.
सीखे थे ये गुर चाची से.
इसलिए मैं फोन करके नहीं कहता
कि मुझे बुलाओ.
पैसे देकर नहीं कहता कि
मुझे छापो.
तलवे चाटकर नहीं कहता कि
मुझ पर लिखो.
झूठी निष्ठा प्रदर्शित नहीं करता कि
पुरस्कार मिले.
मैं जिस दिशा में हूँ
सहजता से हूँ
वह दिशा मेरी है
और
तुम्हारी दिशा में चलने से मुझे परहेज नहीं
पर उस दिशा में मेरी दिशा का असभ्य अतार्किक विखंडन दिखता है
मेरे पुरखों को अपशब्द मिलते हैं
और मैं विवश हो जाता हूँ
वह कहने और लिखने को
जो सत्य है
और सच की आदत है युगों पुरानी
अकेले खड़ा रहने की.
इसलिए जब तुम गोष्ठी करते हो
मुझे खुशी होती है
क्योंकि खुशी और जीवन्तता का एक गहरा सम्बन्ध है.
तुम किसे बुलाते, वह मेरा विषय नहीं
क्योंकि नानक चाहते थे
अनेक अच्छे लोग अनेक दिशाओं में बिखर जाएँ.
पर जब तुम पूछते हो कि बिना आमन्त्रण कोई क्यों नहीं आया
तो मुझे लगता है कि
तुम भी हलके हो
और मुझे भी हल्का बनाने की कोशिश कर रहे हो.
तुम्हें तुम्हारी हल्की मुस्कान मुबारक
जो तुम्हें क्षण भर का जीवन देती है
मुझे चलना है
अभी मीलों
मुझे जूते चाहिए
जिससे मैं निर्द्वन्द्व रौंदता रहूँ असत्य
और खोजता रहूँ अपना सच!
माधव कृष्ण
०२.०४.२३


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