रविवार, 20 फ़रवरी 2022

गुलाब लेकर खड़ा रहा पर, तुम्हारी ज़ुल्फ़ें सजा न पाया।- आनंद अमित

तुम्हीं से हमने किया मुहब्बत, तुम्हीं से लेकिन बता न पाया।
चली गयी तुम कसम धराकर, कसम से मैं कसमसा न पाया।

लिखे थे तुमने लहू से अपने, चुभा-चुभाकर कलम नसों में।
जला चुका हूँ कई ख़तों को, तुम्हारे ख़त मैं जला न पाया।

हमारी हसरत रही अधूरी, हमारे सपने रहे अधूरे।
गुलाब लेकर खड़ा रहा पर, तुम्हारी ज़ुल्फ़ें सजा न पाया।

नहीं है तुम सा कोई नगीना, हमारी किस्मत में ख़ाक ही है।
तमाम कोशिश के बाद भी तो, मैं अपनी किस्मत जगा न पाया।

तुम्हारी ख़िदमत में सर झुकाना, न थी इबादत तो और क्या थी।
जो तुम न आयी हमारे हिस्से, समझ लो मैंने ख़ुदा न पाया।

हमारी ज़ानिब यही हुआ बस, न टूटी कसमें न टूटे वादे।
मलाल है अब किसे बताऊँ, वफ़ा किया पर वफ़ा न पाया।

ग़ज़ल लिखी थी हर एक सफ़हे पे, हरेक मक्ते में नाम तेरा।
'अमित' लिखा हो किसी सफ़हे पे, कोई भी ऐसा सफ़हा न पाया।

Anand Amit Hindi Shree: https://youtu.be/GXgKgZt9Jik
: ये गाना इसी धुन पर है



सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

वैलेंटाइन डे विशेष- गुलाब नहीं चलो प्यार में कांटे बाँटें- डॉ एम डी सिंह ग़ाज़ीपुर

सियासत के शिकंजों से बचने की चाल सोच
अपने किस घड़ी ठोकना जंघे पे ताल सोच

उल्फत ने जान ली है नफरत से कहीं ज्यादा
वह उठा रही तेरे भी दिल में उबाल सोच

छिन तलवार जाय तोभी करेगा जुल्म जालिम
ली जाय कैसे उसके हाथों से ढाल सोच

निगल समंदर को ले दरिया तो कुछ बात बने
करने को सुन तू भी कुछ ऐसा कमाल सोच

मची आकाश में है शोर चुपचाप भीडं है
पड़ी हुई यहां जरूर काले में दाल सोच

डॉ एम डी सिंह

-फिर करता है मन :

आखिरी बार
एक बार और
बार-बार
करता है मन
देखा आऊं
अपना गांव

नगर से दूर
प्रकृति के पास
उड़ती हुई धूल
उगी हुई घास
टूटे खपरैल
जर्जर छप्पर
गंगा का अतिक्रमण
बैलों की घंटी
ट्रैक्टर की भड़-भड़
घुरिया काकी की चिल्ल-पों
इमिरती भौजी की झन-झन
छन्नू का अखाड़ा
नंग धड़ंग ताल ठोकते
गांव के नवरतन

फिर करता है मन
मंगरू काका की चुनौटी चुरा लूं
महंगू दादा की हुक्की गुड़गुड़ा लूं
मचान पर बैठ चिड़िया उड़ा लूं ।

(मुट्ठी भर भूख)

डॉ एम डी सिंह

ध्वज गणतंत्र का फहराएं

एक थे हम एक रहेंगे प्रतिज्ञा पुनः हम दोहराएं
एक मन एक पन से ध्वज गणतंत्र का फहराएं

सहज सरल सी एक युक्ति हो
कठोर जितनी एक भुक्ति हो
हो एक चेतना एक वेदना
एक हो बंधन एक मुक्ति हो

गंण अनेक पर एक गीत एक स्वर में हम गाएं
एक मन एक पन से ध्वज गणतंत्र का फहराएं

मंत्र एक हों मांत्रिक जितने
तंत्र एक हों तांत्रिक जितने
भिन्न भेष हो चाहे भाषा
जंत्र एक हों जांत्रिक जितने

जितना भी हो बोझ भारी गंण कंधा एक बन जाएं
एक मन एक पन से ध्वज गणतंत्र का फहराएं

डिगें नहीं सब लड़ें साथ में
जिएं सभी सब मरें साथ में
यहीं साधना यहीं सिद्धि हो
लगे रहें सब करें साथ में

यही क्षुधा यही दिखे तृष्णा जन गण मन मिल जाएं
एक मन एक पन से ध्वज गणतंत्र का फहराएं


तोहार मोर बबुनी

पिपिआति बा तुरुही बाजत बा तासा
तोहार मोर बबुनी सगरी बतासा

चहकोर भोर बा टहकोर दुपहरिआ
लग्गत बा महुआ अस मातल तिजहरिआ
संझइती क बेरा जस सिरफल क लासा
तोहार मोर बबुनी सगरी बतासा

बदरी अस बार मोरनी अस चाल बा
मोतिअन अस दंतुली चान जस गाल बा
नजरिया बा तिरछे चलावति गंड़ासा
तोहार मोर बबुनी सगरी बतासा

जवानी लगवले सिउराती क मेला
दिनवा भइल भांग धतूरा क रेला
बबुअन क जिउ उलटे गड़ले बा बांसा
तोहार मोर बबुनी सगरी बतासा


फिर से निचोड़ी भूख ने आंतें समय की

खड़ी की तर्क ने भाषा-भाष्य में अड़चनें
परिभाषा में उठ रहीं नित नई धड़कनें
चिंतन, चातुर्य और चरित्र में विभेद बढ़े
हुईं भाव में प्रकट भ्रम की अनेक उलझनें

स्वयं काव्य ने उतार अपनी फेंकी सहजता
गद्य आधुनिक भी अब नागफनी बोने लगे

सत्य ने भी कल्पना के अब सारे पंख काटे
अकर्मण्यों ने सबको गीता और शंख बांटे
सम्मान उसको भी सबके बराबर चाहिए
हठ ने हर जगह आलेख अनहद तल्ख़ साटे

घनघोर अंधेरी रात आई लौट फिर से
जुगनू आज फिर से प्रकाश के कोने लगे

संवादों ने कुटिलता के सारे बंध तोड़े
कल से किए धैर्य ने सारे अनुबंध छोड़े
फिरसे निचोड़ी भूख ने आंतें समय की
दुर्भिक्ष ने आपदा से कुटिल संबंध जोड़ें

कुत्ते भी करते आदमी को देख झौं-झौं
छिनी परंपरा को देख अपनी रोने लगे

चढ़ गईं आस्तीनें मुश्कें भी कसने लगीं
तरकस में तीरों की संख्याएं बढ़ने लगीं
खड़ी सेनाएं दिख रहीं आमने-सामने
फिर काल के भाल भृकुटियां तनने लगीं

पहुंच फिर गरदनों तक गए लो हाथ उठ कर
फिर कालरों से गिर बटन कहीं खोने लगे


फिर मत कहना :

सीधा कभी चलेगा क्या
जिसकी प्रवृत्ति में कैंड़ापन है
लड़ना भिड़न जिसका मन है
चाहे जैसी राह बना लो सीधी चिकनी
तोड़ेगा ही काटेगा ही
जहां चाहेगा मोड़ेगा हीं

मेरे भाई !
उसकी पगडंडी को सड़क बना दो 
बनी रहेगी मुद्दत तक साबुत

माना तुम्हारे ज्ञान विज्ञान से
रेत में धान की खेती होगी
पानी में बनेंगे मकान 
खाई में दौड़ेगी कार
पहाड़ की बर्फीली चोटी पर 
घास के उगेंगे मैदान 
आकाश में फूल खिलेंगे

भाई मेरे ! 
उसकी पगडंडी छीन तुम 
उसे ध्यानमुक्त अज्ञान दे रहे 
पाताल से आकाश तक सड़क बनाकर
तुम खालिस अभिमान दे रहे

एक दिन प्रकृति पूछेगी 
इंसान कहां है

सन्नाटे के शोर से 
दिमाग के परखच्चे उड़ जाएंगे 
फिर मत करना 
मैंने आगाह नहीं किया 

भाई !

लड़ाई शाश्वत है :

जीत और हार से 
ज्यादा जरूरी है लड़ना
आद्यांत लड़ते रहना ही जीवन है
जीवन संघर्ष में निरंतरता बनाए रखना
एक सहज सरल समर्पण है
समर्पण है जीवन उद्योग में
उद्यमी जीव का
जीवंतता बनाए रखने के लिए

याद रखें 
प्रतिद्वंदी कभी दुश्मन नहीं होता 
जीत कभी क्रूरता से नहीं मिलती
न जन्म ना मृत्यु मेरे भाई !
लड़ाई शाश्वत है



वादे में ना किसी, तेरी उम्मीदों में खामियां हैं
जिस तरह थे वे हैं ही, तेरी दीदों में खामियां हैं

मेरी बातों पे गौर फरमा बयां कर रहा हूं सच
मगरूरों में नहीं कुछ भी मुरीदों में खामियां हैं

कहीं चुपचाप बैठे रहना रह जाना मुद्दतों तक
बेफिकरों से कहीं ज्यादा संजीदों में खामियां है

देख वो जो उड़ रहा आकाश में एक दिन गिरेगा
तारीफ में कढ़ी जा रहीं कसीदों में खामियां हैं

मानता तू अपने ख्वाबों को कुसूरवार है गलत
ना पता तुझे गाफ़िल तेरी नींदों में खामियां हैं

डॉ एम डी सिंह

कद्दावर हो आगे मुकरने का मजा आए
हो सामने चट्टान ठुकरने का मजा आए

राहें ना बता आसान रहबर और हमको
दुश्वार डगर हो कि गुजरने का मजा आए

चढ़ने दे दोस्त इतना नीचे न दिखे कुछ भी
दूर हो घाटी कुछ उतरने का मजा आए

मिल जाए गर किसी के सपनों को पर हमसे
फिर ख्वाब कुछ अपने कुतरने का मजा आए

नसीहतें सभी तेरी हम मान लें नासेह 
बिगड़ने दे इतना सुधरने का मजा आए

वैलेंटाइन डे विशेष- 

गुलाब नहीं चलो प्यार में कांटे बाँटें
चुंबन नहीं आज गाल पर चांटे बाँटें 

चुभी जा रही जिन आंखों में आज रोशनी
मुट्ठी - मुट्ठी उन्हें अंधेरी रातें बाँटॆं

चलो दरकते विश्वासों में आग लगा दें
टूटते हुए कच्चे धागों को गांठें बाँटें

सुई धागा लिए ह्रदय में आ चुपके से
फटी हुई जेबों के खातिर टांके बाँटें 

नहीं लुभाता नगद न जाने क्यों दुनिया को
खोल जीवन बही उधार के खाते बाँटें

डॉ एम डी सिंह





गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

आपको पीड़ित मानवता ने पुकारा है ::-- आदरणीय गुरु जी प्रवीण तिवारी पेड़ बाबा

आपको पीड़ित मानवता ने पुकारा है ::--
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हमारी पाँच ज्ञान इंद्रियाँ हमें ऐसा नाच नचाती हैं कि जीवनपर्यंत हम इनको ही संतुष्ट करने में लगे रहते हैं फिर भी इनकी भूख शांत नहीं होती । इसी का देन है कि धरती पर इंसानों की संख्या तो बढ़ती जा रही है परन्तु इंसानियत विरलों में, लाखों में किसी एक में ही है । जिसका परिणाम यह है चारों ओर प्रदूषण का अंबार लगा हुआ है । आज शायद ही कोई अपनी मौत मरता है । चारों ओर लूटपाट, दुर्घटना, हवशीपन बढ़ता ही जा रहा है । आज का इंसान कैसे भी करके मात्र खुद को बचाने में लगा है ।

चुँकि लोगों का प्यार संसाधनों से बढ़ता जा रहा है इसलिए लोग लोगों से दूर होते चले जा रहे हैं । अब इंसान मात्र फोन तक सिमटकर रह गया है ।

हम सबका जीवन दौड़ की प्रतियोगिता में शामिल लोगों जैसा हो गया हैं जहाँ सभी जीतने के लिए दौड़ते हैं । यहाँ गिरने वाले को कोई सहारा देने वाला नहीं होता बल्कि लोग उसको कुचलते हुए मंजिल की ओर बढ़ चलते हैं ।

बचपन से हमें संस्कार भी बड़ा आदमी बनने का ही दिया जाता है यहाँ बड़ा का मतलब धन से बड़ा है । इस तरह का संस्कार लोगों को अपनों से दूर करता चला जा रहा है । आज इसी का परिणाम है कि सभी उदासी का जीवन, अकेले का जीवन जी रहे हैं ।

आप धन खूब कमाइए पर उसका एक छोटा सा अंश पीड़ित मानवता के लिए अवश्य निकालिए ।
गीता के तीसरे अध्याय के बारहवें और तेरहवें श्लोक में तो स्पष्ट लिखा है कि " देवताओं के द्वारा दिए भोगों को जो पुरुष उनको दिए स्वयं भोगता है वह चोर है ।" तथा " जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिए अन्न पकाते हैं, वे तो पाप खाते हैं ।"

हम भगवान राम और कृष्ण के जीवन से देखते हैं कि इनका जीवन गरीबों के लिए समर्पित था ।
हम आप सभी का आह्वान करते हैं आइए हमलोग मिलजुल कर पीड़ितों के जीवन स्तर को बढ़िया बनाते हैं । आपको पीड़ित मानवता ने पुकारा है ।