घर के किसी कोने में फेंके हुए ओखरी, जाता, चाकी, खुरपी, हंसुआ देखकर आज भी कदम ठिठक से जाते हैं। इन सब के हथो से अपने पुरखों की स्मृतियों का धूल झाड़ते हुए आज भी महसूस होता है...आजी बाबा के हाथों का स्नेहिल स्पर्श..
और आज तो गजब हुआ, जब बड़ी मम्मी को चाकी चलाता देखकर मै अपने आप को रोक नहीं पाया उसे चलाने से मम्मी हँसने लगी थी...
बड़े पापा और पापा जिस स्कूटर को चलाकर मुझे कभी गाज़ीपुर या अन्य जगहों पर घुमाने ले जाते थे, उस टूट चूके स्कूटर को आज भी धोकर चलाने का मन होता है।
मन होता है किसी अस्सी साल के बुजुर्ग से घण्टों बातें करूँ और अंत में पूछूँ दूँ कि आप जब पहली बार सिनेमा देखने गए थे...तो कौन सी फ़िल्म देखे और कौन सी धोती पहनकर गए थे..?
क्या आजी ने उस धोती का भी लेवा-गुदड़ी बना दिया है..?
लेकिन ये आज तक समझ में नहीं आया कि कैसे पूछ दूँ कि आप रामचरित मानस पढ़कर रोने क्यों लगतें हैं...?
एक बार आजी से कहा कि इसके पहले आपके सारे दांत टूट जाएं मुझे आपसे सीखना है..सारे सोहर,सारे जतसार..हल्दी मटकोर और बियाह के गीत...जीऊतिया और पिंड़ीया की सारी कथाएं और तुलसी बिवाह के सारे रिवाज.।
मईया तो मारने को दौड़ा ली थी, जब एक दिन कह दिया कि "सुनो..इससे पहले की तुम स्वर्ग सिधार जाओ..या तो तुम अपने जैसा कटहल का अंचार लगाना सीखा दो, या फिर मरने से पहले इतना अंचार लगा दो कि तुम्हारे जाने के बाद अंचार कभी खत्म न हो...
लेकिन ये क्या..इधर यादों की खिड़की में अभी भी वो झोला टँगा है,जिसमें पाँच किलो आटा और चार किलो चावल लेकर गांव से इलाहाबाद आया था..
इलाहाबाद आकर पता चला कि मम्मी ने तो बिन बताए आटे में आलू और चावल में दाल दे रखा है..दो पुड़िया मसाला और एक डिब्बे में अंचार भी है..
अंचार तो कई साल पहले ही खत्म हो गया है..लेकिन कई कमरे बदलने के बाद भी उस डिब्बे से अंचार की वो सुगंध कभी खत्म न हुई..न ही कभी डिब्बे को और न ही कभी उस फटे झोले को फेंकने की हिम्मत हुई..
कई बार मैं सोचता हूँ कि ये मुझे कौन सा रोग है..क्या मुझे एक सौ अस्सी साल पहले पैदा होना चाहिए था..?
ये क्यों मुझे पुरानी चीजें एक-एक करके खींचतीं हैं..पुराने गानें, पुरानी फिल्में, पुरानी किताबें और पुराने लोग...पुरानी बातें और पुराने प्रेमी..
क्या मैं पागल हूँ.. ?
दरअसल मैं पागल नहीं हूँ..न ही कोई पुराने गानें, पुरानी फिल्में, पुरानी किताबें और पुराने लोग...और पुरानी चीजें पुरानी होतीं हैं...
दरअसल मनुष्य की आवश्यकताएं रोज नयी होती जातीं हैं। बहुत सारी पुरानी चीजें किसी के लिए नयी होतीं जातीं हैं। और शायद यही डर है कि मैं नए में पुराना और पुराने में नया खोज लेना चाहता हूँ..
मैं चाहता हूँ मैं बन जाऊं पुराने जमाने का नया और नए जमाने का एक पुराना आदमी..🤗🙏
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