सोमवार, 25 अगस्त 2014

डोलि गइल पतइन के पात-पात मन, जब से छु गइल पवन -भोलानाथ गहमरी

डोलि गइल पतइन के पात-पात मन, 
जब से छु गइल पवन

पाँव के अलम नाहीं
बाँह बे-सहारा,
प्रान एक तिनिका पर
टंगि गइल बेचारा,
लागि गइल अइसे में बाह रे लगन

रचि गइल सिंगार
सरुज-चान आसमान,
जिनगी के गीत लिखे
रात भर बिहान,
बाँचि गइल अनजाने में बेकल नयन।

देह गइल परदेसी
मोल कुछ पियार के,
दर्द एक बसा गइल
घरी-घरी निहार के,
लुटि गइल जनम-जनम के हर सुघर सपन।

काँट –कुश से भरल डगरिया, धरीं बचा के पाँव रे- भोलानाथ गहमरी

काँट –कुश से भरल डगरिया, धरीं बचा के पाँव रे
माटी ऊपर, छानी छप्पर, उहे हामरो गाँव रे…..

चारों ओर सुहावन लागे, निर्मल ताल-तलैया,
अमवा के डाली पर बैठल, गावे गीत कोइलिया,
थकल-बटोही पल-भर बैठे, आ बगिया के छाँव रे…

सनन –सनन सन बहे बायरिया, चरर-मरर बंसवरिया,
घरर-घरर-घर मथनी बोले, दहिया के कंह्तरिया,
साँझ सवेरे गइया बोले, बछरू बोले माँव रे…….

चान-सुरुज जिनकर रखवारा, माटी जिनकर थाती,
लहरे खेतन, बीच फसलीया, देख के लहरे छाती,
घर-घर सबकर भूख मिटावे, नाहीं चाहे नाव रे…….

निकसे पनिया के पनिघटवा, घूँघट काढ़ गुजरिया,
मथवा पर धई चले डगरिया, दूई-दूई भरल गगरिया,
सुधिया आवे जो नन्द गाँव के रोवे केतने साँवरे……

तन कोइला मन हीरा चमके, चमके कलश पिरितिया,
सरल स्वाभाव सनेही जिनकर, अमृत बासलि बतिया,
नेह भरल निस कपट गगरिया, छलके ठांवे-ठांव रे……….

कवने खोंतवा में लुकाइलु, आहि रे बालम चिरई,-भोलानाथ गहमरी

कवने खोंतवा में लुकाइलु, आहि रे बालम चिरई,
वन-वन ढूँढलीं, दर-दर ढूँढलीं, ढूँढलीं नदी के तीरे,
साँझ के ढूँढलीं, रात के ढूँढलीं, ढूँढलीं होत फजीरे,
मन में ढूँढलीं, जन में ढूँढलीं, ढूँढलीं बीच बजारे,
हिया-हिया में पैंइठ के ढूँढलीं, ढूँढलीं विरह के मारे,
कौने सुगना पे लुभइलु, आहि रे बालम चिरंई……….

गीत के हम हर कड़ी से पूछलीं, पूछलीं राग मिलन से,
छन्द-छन्द, लय ताल से पूछलीं, पूछलीं सुर के मन से,
किरण-किरण से जाके पूछलीं, पूछलीं नील गगन से,
धरती और पाताल से पूछलीं, पूछलीं मस्त पवन से,
कौने अंतरे में समइलु, आहि रे बालम चिरई…………

मन्दिर से मस्जिद तक देखलीं, गिरजा से गुरद्वारा,
गीता और कुरान में देखलीं तीरथ सारा,
पण्डित से मुल्ला तक देखलीं, देखलीं घरे कसाई,
सागरी उमरिया छछनत जियरा, कबले तोहके पाई,
कौनी बतिया पर कोहइलु, आहि रे बालम चिंरई…

बुधवार, 20 अगस्त 2014

आईने सा बिखरे पर पत्थर तरस नहीं खाते जिस्म ज़ख्मी है पर खंज़र तरस नहीं आते,

आईने सा बिखरे पर पत्थर तरस नहीं खाते
जिस्म ज़ख्मी है पर खंज़र तरस नहीं आते,
होते एक बराबर के तभी मिलता है मांगे से
सूखे हुए दरिया पर समंदर तरस नहीं खाते,
लुटते लुटते बाकी रहा ना है कुछभी लेकिन
भारत पे नेता रूपी सिकंदर तरस नहीं खाते,
ख्वाबों में आके डरा देते हैं आज भी मुझको
दिल दुखाने वाले यह मंजर तरस नहीं खाते,
कैसे बनता है आशियाँ बेघर हैं क्या जाने ये
घोंसला मिटाने में यह बंदर तरस नहीं खाते,
चढ़वाकर खून ही बच पायी है ज़िंदगी उसकी
मगर लहू पीने में ये मच्छर तरस नहीं खाते,
पैसे सेही मिलती हमने ज़िंदगी देखी है खुदा
मुफ़लिस बीमारों पर डॉक्टर तरस नहीं खाते,
रोज़ चीर हरण होता द्रोपदियों का यहां
खड़े देखते आज के गिरधर तरस नहीं खाते--

शनिवार, 16 अगस्त 2014

फूल खिला दे शाखों पर, पेड़ों को फल दे मालिक,

फूल खिला दे शाखों पर, पेड़ों को फल दे मालिक,
धरती जितनी प्यासी है, उतना तो जल दे मालिक,
वक़्त बड़ा दुखदायक है, पापी है संसार बहुत,
निर्धन को धनवान बना, दुर्बल को बल दे मालिक,
कोहरा कोहरा सर्दी है, काँप रहा है पूरा गाँव,
दिन को तपता सूरज दे, रात को कम्बल दे मालिक,
बैलों को इक गठरी घास, इंसानों को दो रोटी,
खेतों को भर गेहूँ से, काँधों को हल दे मालिक,
हाथ सभी के काले हैं, नजरें सबकी पीली हैं,
सीना ढाँप दुपट्टे से, सर को आँचल दे मालिक...